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________________ ( १२४ ) तस्यावश्यं भवेदीक्षा स्वेवमुक्तं पुरातनैः ।। ६९१ ।। प्रकटितसुनियोगे राजयोगो यदि स्यादशुमफलविपाकं कर्म प्रोन्मूल्य पश्चात् । जनयति पृथिवीशं दीक्षितं साधुशीलं प्रणतनृपशिरोभिर्धृष्टपादारविन्दम् || ६९२ ॥ भाग्यग्रोथ मूर्ती स्यान्मूर्तिपो भाग्यवेश्मनि । दीक्षायोगो भवेदेको भाग्ये भाग्यग्रहों यदि ।। ६९३ ॥ लग्ने मृतिपतिर्जातो दीक्षायोगः पगे भवेत् । विलग्नं लग्नपः पश्येद् गुरुं च गुरुपो यदि ॥। ६९४ ॥ 2 दीक्षायोगो भवेदन्यो लग्ननाथो रुस्तथा । गुरुनाथो विलग्नं चेद्दीक्षायोग चतुर्थकः ।। ६९५ ।। जिस का जन्म लग्नेश, एक राशि में स्थित सब प्रहों से देखा जाय तो उस को अवश्य ही दीक्षा होगी ऐसा प्राचीनाचार्यों का मत है ||६६१|| इस प्रसिद्ध मुनि के योग में यदि राज योग भी हो जाय तो अशुभ फल के विपाक को हटा कर पीछे वे दीक्षित और साधुशील होकर राजा अर्थात् किमी बड़े स्थान के महन्त होते हैं और उनके चरणारविन्द नम्र राजाओं के शिर मुकुट से संवित होते हैं ।। ६६२ || जिस का जन्म में भाग्येश लग्न मे हो, और लग्नेश भाग्य में हो तो एक दीक्षा योग हुआ ||६६३|| भाग्येश भाग्य में हों, और लग्न लग्न में हो तो द्वितीय दीक्षा योग हुआ, यदि लग्नेश लग्न को देखे और भाग्येश, भाग्य को देखे वो || ६६४|| तृतीय दीक्षा योग हुआ और यदि लग्नेश नवम भाव को देखे । नवमेरा लग्न को देखे तो चतुर्थ दीक्षा योग हुआ ||६६५।। . 1. महौ for ग्रहो A. 2. गुरुं शुभम् for गुरुस्तथा A, A1
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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