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________________ रोगिणोऽस्य बुरामा न विनष्टे स्वमिलेचरे । रक्तग्रहे विनष्टे तु विनष्टं रुधिरं वदेव ॥३७८॥ छिद्रस्थौ चन्द्रशुको चेदतीसारं विनिदिशेत् । छिद्रस्थावुशनाभौसौ बलपाताय कीर्तितौ ॥३७९।। मौमाको रुधिरोद्रकं पित्तोद्रकं च संस्थितम् । सको धिषणस्तत्र सनिपातं करोति च ॥३८०॥ घने कुजेऽथवा सूर्ये संतापं रोगिणां वदेत् । शनिरन्यग्रहयुक्तश्चित्तरोगं करोत्यहो ।।३८१॥ छिद्रस्थौ राहुमार्तण्डौ कुष्ठरोगप्रदायको । प्रददाति महाकुष्ठं ताभ्यां युक्तस्तु मङ्गलः ३८२॥ तत्र शनौ च राहौ च वातरोगः स्फुटं भवेत् । कम्पेते हस्तपादौ च रोगस्यवं विनिश्चयः ॥३८३॥ यदि अग्निप्रह विनष्ट रहे तो रोगी को भूख की कमी होती है । रतमह यदि नष्ट हो तो रुधिर की कमी कहनी चाहिये ।। ३७८ ॥ यदि आठवें स्थान में चन्द्र और शुक्र रहे तो अतीसार कहना चाहिये। तो फिर शुक्र और शनि उस स्थान में रहे तोबल की कमी होती है।। ३७६ ॥ आठवें स्थान में यदि मंगल और रवि रहे तो रुधिर और पित्त का अतिशय कहना चाहिये । फिर शुक्र और शनि उस स्थान मे रहें तो समिपातरोग होता है ॥ ३८०॥ सप्तम स्थान में यदि मंगल वा रवि रहें तो रोगी को पूर्ण पीड़ा होती है । शनि किसी अन्य ग्रहों से युत होकर बैठा हो तो मानसिक रोग होता है॥३८॥ अष्टम स्थान में यदि सूर्य और गहु रहे तो कुष्ठ रोग होता है। यदि मंगल भी उनके साथ बैठा हो तो महाकुष्ठ कहना चाहिये ।। ३८२ ॥ अष्टम स्थान में शनि वा राहु रहें तो वातरोग होता है। हाथ पांच सभी कांपने लगते है। रोग का इस प्रकार निश्चय आनना ॥३८॥ 4. The text reads अवेत् for वदेत् which is obviously incorrect. 2. दुरानो for वुशना A. B. चित्र for चिRA 1. The text reads i foran
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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