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________________ यत्र शुक्रः क्षितौ तत्र चक्रमध्ये निधिः स्थितः । शुक्रदृष्टे पुरो वापि मेहे' खण्डं विलोकयेत् ।।२६९।। यत्र गुरुः क्षितौ तत्र चक्रकोणे निधिः पुरः। यत्र खेटा "धनामावे तत्रावश्यं निर्षिहुः ॥२७॥ तुर्यशः केन्द्रमध्यस्थोऽपथ 'एकनिधिस्तदा । तुर्येशो बाह्यराशौ वा गृहादहिनिधिः पुनः ॥२७१॥ यत्र लाभे भवेत् शुक्रः स्वकीयं स्वजनस्य वा । स्थापितं वा प्रनष्टं वा लभ्यते यहुलं धनम् ।।२७२॥ बुधे चन्द्र भवेल्लाभो जीवयुक्त विशेषतः । शुक्रयुक्त महालाभः प्रतिवेश्म निधरपि ।।२७३।। ऊर्ध्वदृष्टौ भवेचं मालादावुपरिसंस्थितम् । अधोदृष्टावधोवस्तु समदृष्टौ सदेशके ॥२७४।। ___ जिसकी कुण्डली में शुक्र लग्न में हो तो घर के बीच में निधि कहनी चाहिये । यदि शुक्र की दृष्टिमात्र हो तो घर के आगे वा घर के किसी भाग में देखनी चाहिये ॥२६६।। जहां लग्न में गुरु रह वहां घर के किसी कोने में निधि होती है। यदि धनभाव मे ग्रह रहं तो वहां अवश्य प्रचुर थन होता है ॥२७॥ चतुर्थेश यदि केन्द्र में हो तो कोने में सम्पत्ति कहना, चतुर्थश यदि बाह्यराशि में हो तो घर से बाहर निधि कहनी चाहिये ॥२७१।। जहां पर लाभस्थान में शुक्र हो वहां अपना और अपने सम्बन्धियों का रक्खा तया खोया हुआ पर्याप्त धन प्राप्त होता है ।।२७२। - लाभ स्थान में बुध वा चन्द्र गुरु से युक्त हों तो विशेष लाभ कहना चाहिये । यदि वही बुध वा चन्द्र शुक्र के साथ हों तो पूर्ण निधि की प्राप्ति होती है ॥२७॥ ऊर्ध्व दृष्टि रहने पर छत्त आदि ऊपर प्रदेश मे, अघोष्टि वाले ग्रहों के रहने पर नीच प्रदेश में, सम दृष्टि वाले ग्रहों की दृष्टि से सम प्रदेश मे निधि कहनी चाहिये ।।२७४।। 1. स्थितिनिधिः for निधिः स्थिति: A, 2. गेह for गेहे A. 3. घना for धना Bh. 4, स्थापवरके for स्थोऽपथ एक० Bh. b. स्थापितं for स्थागितं A. 6. उर्द्धदृष्टो for उर्ध्वदृष्टी A1 7. मालापरिसंस्थतम् Bh.
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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