SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दृष्टि का विषय दर्शाती गाथाएँ अमुक लोग प्रश्न करते हैं कि निषेधरहित का दृष्टि का विषय किस प्रकार होगा ? तो उन्हें हम बतलाते हैं कि दृष्टि के विषय में न भेदरूप विकल्प है (अर्थात् अभेद द्रव्य का ग्रहण है) और न तो निषेधरूप विकल्प है अर्थात् जिनका (अशुद्धभावों का विभावभावों का) निषेध करना होता है, उन पर दृष्टि ही नहीं, इसलिए ही वे अत्यन्त गौण हो जाते हैं और दृष्टि, मात्र दृष्टि के विषयरूप शुद्धात्मा पर ही होती है जो कि निर्विकल्प ही होता है और वही सम्यग्दर्शन की विधि है; इसलिए कहा जा सकता है कि निषेध न करके, उनके ऊपर से दृष्टि ही हटा लेनी है। यह है विधि-सम्यग्दर्शन की, इसलिए जिसे निषेध का आग्रह हो, उन्हें वह छोड़ देना चाहिए क्योंकि निषेध, वह भी निश्चयनय का पक्ष है, जबकि सम्यग्दर्शन का विषय पक्षातीत है, नयातीत है इसलिए प्रत्येक प्रकार का पक्ष और आग्रह छोड़े बिना सम्यग्दर्शन होना ही शक्य नहीं है। 59 दूसरा समझना यह है कि वस्तु जैसी है वैसी समझनी पड़ेगी अर्थात् आत्मा में रागादि होते हैं, तो वे किस अपेक्षा से और नियमसार तथा समयसार जैसे आध्यात्मिक शास्त्रों में जो ऐसा लिखा है कि वे रागादिक जीव के नहीं हैं तो वह भी किसी अपेक्षा से ही बतलाया है, एकान्त से नहीं ; वह मात्र सम्यग्दर्शन के विषय पर दृष्टि कराने को अर्थात् सम्यग्दर्शन कराने को ही बतलाया है; कोई उसे एकान्त से लेकर स्वच्छन्दरूप परिणमे तो वह उनकी महान भूल है कि जिसक फल अनन्त संसार है। यही बात आगे बतलाते हैं। गाथा ६६३-अन्वयार्थ- ' तथा यहाँ केवल सामान्यरूप वस्तु (परमपारिणामिकभाव) निश्चय से निश्चयनय का कारण है तथा कर्मरूप कलंक से रहित ज्ञानस्वरूप आत्मा की (परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा की ) सिद्धि फल है। ' इसलिए समझना यह है कि ऐसे आध्यात्मिक शास्त्रों का किसी भी वस्तु को एकान्त से प्ररूपित करने का आशय जरा भी नहीं होता और इसलिए उसे एकान्त से वैसा नहीं लेना, परन्तु उसका आशय मात्र सम्यग्दर्शन का जो विषय है, उस आत्मभाव में (परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा में - कारणशुद्धपर्याय में - कारणपरमात्मा में ) 'मैंपना' कराना और अन्य सर्वभावों में से 'मैंपना' का जो भाव है कि जो बन्धन के कारण हैं, वे दूर करना, अर्थात् जीव को उन बन्ध के कारणों में अथवा बन्ध के फल में 'मैंपना' करने से रोकना और परमपारिणामिकभावरूप जीव में 'मैंपना' कराकर उसे सम्यग्दर्शनी बनाना, मोक्षमार्ग में प्रवेश दिलाना। - मात्र इसी अपेक्षा से इन शास्त्रों में रागादि इत्यादि भाव जीव के नहीं हैं ऐसा बतलाया है, उसे ऐसा एकान्त से नहीं समझना। यदि कोई उसे एकान्त से ऐसा समझे और प्ररूपित करे तो, उसे जैन सिद्धान्त के बाहर
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy