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________________ 8 ३ सम्यग्दर्शन दृष्टि का विषय सम्यग्दर्शन, यह मोक्षमार्ग का द्वार है अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन के बिना मोक्षमार्ग में प्रवेश ही नहीं होता और मोक्षमार्ग में प्रवेश के बिना अव्याबाध सुख का मार्ग ही साध्य नहीं होता अर्थात् मोक्षमार्ग में प्रवेश और बाद के पुरुषार्थ से ही सिद्धत्वरूप मार्गफल मिलता है, अन्यथा नहीं। सम्यग्दर्शन के बिना भवकटी भी नहीं होती क्योंकि सम्यग्दर्शन होने के बाद ही जीव अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल से अधिक संसार में नहीं रहता, वह अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल में अवश्य सिद्धत्व को प्राप्त करता ही है जो कि सत्-चित्-आनन्दस्वरूप शाश्वत् है। इसलिए समझ में आता है कि इस मानव भव में यदि कुछ भी करने योग्य हो तो वह एकमात्र निश्चय सम्यग्दर्शन ही प्रथम में प्रथम प्राप्त करने योग्य है जिससे स्वयं को मोक्षमार्ग में प्रवेश मिले और पुरुषार्थ प्रस्फुटित होने पर आगे सिद्धपद की प्राप्ति हो । यहाँ यह समझना आवश्यक है कि जो सच्चे देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धारूप अथवा तो नवतत्त्व की श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन है, वह तो मात्र व्यवहारिक (उपचाररूप) सम्यग्दर्शन भी हो सकता है जो कि मोक्षमार्ग में प्रवेश के लिये कार्यकारी नहीं गिना जाता, क्योंकि निश्चयनय के मत से जो एक को अर्थात् आत्मा को जानता है वही सर्व को अर्थात् सात / नौ तत्त्वों को और सच्चे देव - गुरु-शास्त्र को जानता है क्योंकि एक आत्मा को जानने से ही वह जीव सच्चे देव तत्त्व का आंशिक अनुभव करता है, इससे वह सच्चे देव को अन्तर से पहिचानता है और वैसे सच्चे देव को जानते ही अर्थात् श्रद्धा होते ही वह जीव वैसे देव बनने के मार्ग में चलते सच्चे गुरु को भी अन्तर से पहिचानता है और साथ ही साथ वह जीव वैसे देव बनने का मार्ग बतलानेवाले सच्चे शास्त्र को भी पहिचानता है। इस प्रकार स्वानुभूति (स्व की अनुभूति) सहित का सम्यग्दर्शन अर्थात् भेदज्ञानसहित का सम्यग्दर्शन ही निश्चय सम्यग्दर्शन कहलाता है और उसके बिना मोक्षमार्ग में प्रवेश भी शक्य नहीं है ; इसलिए यहाँ बतलाया गया सम्यग्दर्शन, वह निश्चय सम्यग्दर्शन ही समझना। दूसरा, सम्यग्दर्शन के लिए जितना भेदज्ञान आवश्यक है अर्थात् पुद्गल और उसके लक्ष्य से होनेवाले भावों से आत्मा का भेदज्ञान जितना जरूरी है, उतनी द्रव्य-गुण- पर्याय की समझ आवश्यक न होने पर भी, जिसने उस द्रव्य-गुण- पर्यायस्वरूप वस्तु व्यवस्था अथवा उत्पादव्यय-ध्रुवरूप वस्तु व्यवस्था विपरीतरूप से धारण की हो तो उसके लिये यहाँ प्रथम द्रव्य-गुण
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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