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________________ नित्य चिन्तन कणिकाएँ इसी प्रकार दूसरे की निन्दा करने से उसके कर्म साफ होते हैं, जबकि मेरे कर्मों का बन्ध होता है। 179 • ईर्ष्या करना हो तो मात्र भगवान की ही करना अर्थात् भगवान बनने के लिए भगवान की ईर्ष्या करना, अन्यथा नहीं; इसके अतिरिक्त किसी की भी ईर्ष्या करने से अनन्त दुःख देनेवाले अनन्त कर्मों का बन्ध होता है और जीव वर्तमान में भी दु:खी होता है। • जागृति- ते - हर समय रखना अथवा हर घण्टे अपने मन में परिणाम की जाँच करते रहना, उनका झुकाव किस ओर है, वह देखना और उसमें आवश्यक सुधार करना । लक्ष्य एकमात्र आत्मप्राप्ति का ही रखना और वह भाव दृढ़ करते रहना । • अनन्त काल तक रहने के दो ही स्थान हैं। एक सिद्ध अवस्था और दूसरा निगोद। पहले में अनन्त सुख है और दूसरे में अनन्त दुःख है। इसलिए अपने भविष्य को लक्ष्य में लेकर सर्व जनों को अपने सर्व प्रयत्न अर्थात् पुरुषार्थ एकमात्र मोक्ष के लिए ही करनायोग्य है। जो होता है, वह अच्छे के लिए ऐसा मानना । जिससे आर्तध्यान और रौद्रध्यान से बचा जा सकता है। अर्थात् नये कर्मों के आस्रव से बचा जा सकता है। • मुझे किसका पक्ष - किसकी तरफदारी करते रहना ? अर्थात् मुझे कौन सा सम्प्रदाय अथवा किस व्यक्ति विशेष का पक्ष करते रहना ? उत्तर- मात्र अपना ही अर्थात् अपने आत्मा का ही पक्ष करते रहना क्योंकि उसमें ही मेरा उद्धार है, अन्य किसी की तरफदारी नहीं, क्योंकि उसमें मेरा उद्धार नहीं, नहीं और नहीं ही, क्योंकि वह तो राग-द्वेष का कारण होता है परन्तु जब अपने आत्मा का ही पक्ष किया जावे, तब उसमें सर्व ज्ञानियों का पक्ष समाहित हो जाता है। • जैन कहलाते लोगों को रात्रि के किसी भी कार्यक्रम - भोजन समारम्भ नहीं रखना चाहिए। किसी भी प्रसंग में फूल और पटाखे का उपयोग नहीं करना चाहिए। विवाह, यह साधक के लिये मजबूरी होती है, नहीं कि महोत्सव, क्योंकि जो साधक पूर्ण ब्रह्मचर्य न पाल सकते हों, उनके लिए विवाह व्यवस्था का सहारा लेना योग्य है। जिससे साधक अपना संसार, निर्विघ्न से श्रावकधर्म अनुसार व्यतीत कर सके और अपनी मजबूरी भी योग्य मर्यादासहित पूरी कर सके। ऐसे विवाह का महोत्सव नहीं होता क्योंकि कोई अपनी मजबूरी को उत्सव बनाकर, महोत्सव करते ज्ञात नहीं होते। इसलिए
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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