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________________ 178 दृष्टि का विषय निमित्तों से दूर ही रहना आवश्यक है। क्योंकि चाहे जितने अच्छे भावों को बदल जाने में देरी नहीं लगती। दूसरा, यह सब निर्बल निमित्त अनन्त संसार अर्थात् अनन्त दु:ख की प्राप्ति के कारण बनने में सक्षम है। • माता-पिता के उपकारों का बदला दूसरे किसी भी प्रकार से नहीं चुकाया जा सकता। एकमात्र उन्हें धर्म प्राप्त कराकर ही चुकाया जा सकता है। इसलिए माता-पिता की सेवा करना। माता-पिता का स्वभाव अनुकूल न हो तो भी उनकी सेवा पूरी-पूरी करना और उन्हें धर्म प्राप्त कराना, उसके लिए प्रथम स्वयं धर्म प्राप्त करना आवश्यक है। • धर्म लज्जित न हो, उसके लिए सर्व जैनों को अपने कुटुम्ब में, व्यवसाय में-दुकान, ऑफिस इत्यादि में तथा समाज के साथ अपना व्यवहार अच्छा ही हो, इसका ध्यान रखना आवश्यक है। • अपेक्षा, आग्रह, आसक्ति, अहंकार निकाल डालना अत्यन्त आवश्यक है। • स्वदोष देखो, परदोष नहीं; परगुण देखो और उन्हें ग्रहण करो, यह अत्यन्त आवश्यक है। • अनादि की इन्द्रियों की गुलामी छोड़ने योग्य है। • जो इन्द्रियों के विषयों में जितनी आसक्ति ज्यादा, जितना जो इन्द्रियों का दुरुपयोग ज्यादा, उतनी वे इन्द्रियाँ भविष्य में अनन्त काल तक मिलने की संभावना कम। • मेरे ही क्रोध, मान, माया, लोभ मेरे कट्टर शत्रु हैं, बाकी विश्व में मेरा कोई शत्रु ही नहीं है। • एक-एक कषाय अनन्त परावर्तन कराने में शक्तिमान है और मुझमें उन कषायों का वास है तो मेरा क्या होगा? इसलिए शीघ्रता से सर्व कषायों का नाश चाहना और उसका ही पुरुषार्थ आदरना। • अहंकार और ममकार अनन्त संसार का कारण होने को सक्षम है; इसलिए उनसे बचने का उपाय करना। • निन्दा मात्र अपनी करना अर्थात् अपने दुर्गुणों की ही करना, दूसरों के दुर्गुण देखकर सर्व प्रथम स्वयं अपने भाव जाँचना और यदि वे दुर्गुण अपने में हों तो निकाल डालना और उनके प्रति उपेक्षाभाव अथवा करुणाभाव रखना क्योंकि दूसरे की निन्दा से तो अपने तो बहुत कर्मबन्ध होता है अर्थात् कोई दूसरे के घर का कचरा अपने घर में डालता ही नहीं।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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