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________________ दृष्टि का विषय को=कारणशुद्धपर्याय को) जानता-आस्वादता हुआ (अर्थात् आत्मा के अद्वितीय स्वाद के अनुभव में से बाहर नहीं आता हुआ=अर्थात् वहाँ कुछ भी स्व-पर नहीं, वहाँ द्रव्य-पर्याय ऐसा कुछ भी भेद नहीं, क्योंकि वर्तमान पर्याय में ही पूर्ण द्रव्य अन्तर्गत है= समाहित है) यह आत्मा ज्ञान के विशेषों के उदय को गौण करता हुआ (यहाँ समझना यह है कि विशेषों का निषेध नहीं, उन्हें मात्र गौण किया है। यही विधि है अनुभव की) सामान्य मात्र ज्ञान को अभ्यसाता हुआ, सकल ज्ञान को एकपने में लाता है - एकरूप से प्राप्त करता है । ' 172 श्लोक २७५ - 'सहज ( अपने 'स्व' भावरूप) ( स्व के सहज भवनरूप =स्व का सहज परिणमन=परमपारिणामिकभाव = कारणशुद्धपर्याय) तेजपुंज में (ज्ञानमात्र में ) तीन लोक के पदार्थ मग्न होते होने से (ज्ञानमात्र ऐसे आत्मा का स्वभाव ही स्व-पर को जानने का है, इसलिए सर्व ज्ञेय ज्ञात होते हैं=जानता है) जिसमें अनेक भेद होते दिखते हैं (अर्थात् ज्ञानमात्रभाव का ज्ञेयरूप से परिणमन दिखता है=होता है। तथापि उससे डरकर जो ज्ञानमात्रभाव का स्वभाव है, ज्ञेयों को जाने का, उसका निषेध किसी काल में हो सके ऐसा नहीं है) तो भी जिसका एक ही स्वरूप है (सामान्यभाव खण्ड-खण्ड नहीं होता, वह अभेद ही रहता है, इसलिए पर को जानने में डरने की कोई बात ही नहीं है ) .....' सर्व जन इस समयसाररूप शुद्धात्मा में स्थित होओ और अक्षय सुख की प्राप्ति करो, इसी भावना के साथ हमने इतना विस्तार से लिखा है तथापि मेरी छद्मस्थ दशा के कारण, इस पुस्तक कुछ भी भूल-चूक हुई हो तो आप सुधारकर पढ़े और मुझसे जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मेरे त्रिविध-त्रिविध मिच्छामि दुक्कडं। 60
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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