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________________ समयसार के परिशिष्ट में से अनेकान्त का स्वरूप 171 का प्रसंग आता है, जिसका परिणाम एकमात्र भ्रमरूप परिणमन ही है)। वे ज्ञान कल्लोलें ही ज्ञान द्वारा जानी जाती हैं। (यहाँ यह समझना आवश्यक है कि गाथा-६ की टीका में बतलाये अनुसार ज्ञान कल्लोलें ज्ञेयाकार और ज्ञानमात्र ये दोनों अभिन्न ही हैं-अनन्य ही हैं और उनका अर्थात् कर्ताकर्म का अनन्यपना होने से ही वह ज्ञायक हैं।) इस प्रकार स्वयं ही स्वयं से जानने योग्य होने से (अर्थात् ज्ञान कल्लोलें और ज्ञान अनन्यरूप ही है, और यदि उनमें कल्लोलों का निषेध किया जाये तो अर्थात् परज्ञेय को जानने का निषेध किया जाये तो वह निषेध ज्ञायक का ही समझना। क्योंकि कर्ताकर्म का अनन्यपना होने से ज्ञेयाकार ज्ञायक ही है) ज्ञानमात्रभाव (परमपारिणामिकभाव) ही ज्ञेयरूप है (यहाँ यदि ज्ञेयों को जानने का निषेध किया जाये तो ज्ञानमात्रभाव का/ समयसाररूपभाव का ही निषेध होने से उन्हें आत्मा की प्राप्ति नहीं होती) और स्वयं ही (ज्ञानमात्रभाव) अपना (ज्ञेयरूपभाव=ज्ञान कल्लोलों का) जाननेवाला होने से ज्ञानमात्रभाव ही ज्ञाता है=ज्ञायक है (अर्थात् जो ज्ञेय को जानता है, वह ही मैं हूँ-वहाँ ज्ञेयों को गौण करते ही मैं प्रगट होता है नहीं कि ज्ञेयों को जानने का निषेध करने से)। इस प्रकार ज्ञानमात्रभाव, ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता इन तीनों भावों युक्त सामान्य विशेषस्वरूप वस्तु है। (सामान्य विशेष में नियम ऐसा है कि विशेष को निकालने पर सामान्य ही निकल जाता है क्योंकि वह विशेष, सामान्य का ही बना हआ होने से, विशेष को गौण करते ही सामान्य हाजिर होता है ऐसा समझना, इसलिए ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता में से किसी भी एक का निषेध, वह तीनों का अर्थात् ज्ञायक का ही निषेध है, ऐसा समझना।) 'ऐसा ज्ञानमात्रभाव मैं हूँ ऐसा अनुभव करनेवाला पुरुष अनुभव करता है (अर्थात् यह जो जानता है, वह मैं हूँ, फिर वह जानना, स्व का हो या पर का परन्तु यहाँ यह समझना महत्त्व का है कि किसी भी प्रकार से अर्थात् स्व का अथवा पर का, कोई भी जानपना निषेध करते ही आत्मा का-ज्ञायक का निषेध होने से वह जिनमत बाह्य ही है जो कि समयसार गाथा-२ की टीका में भी स्पष्ट बतलाया ही है)। यही बात श्लोक-१४० में भी बतलायी है कि ‘एक ज्ञायकभाव से भरे हुए महास्वाद को लेता हुआ (इस प्रकार ज्ञान में ही एकाग्र होने पर दूसरा स्वाद नहीं आता इसलिए) द्वन्द्वमय स्वाद के लेने में असमर्थ (वहाँ स्व पर नहीं, मात्र मैं हूँ) (अर्थात् वर्णादिक, रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञान के भेदों का स्वाद लेने में असमर्थ इसलिए ऐसा कहा जा सकता है कि अनुभूति के काल में आत्मा पर को नहीं जानता) आत्मा के अनुभव के स्वाद के प्रभाव के आधीन हुआ होने से निज वस्तु वृत्ति को (आत्मा की शुद्ध परिणति को=परमपारिणामिकभाव को समयसाररूप भाव
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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