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________________ 146 दृष्टि का विषय श्लोक ११-'जगत के प्राणियों! उस सम्यक्स्वभाव का अनुभव करो कि जहाँ ये बद्धस्पृष्ट आदि भाव (ऊपर कहे वे चार भाव) स्पष्टरूप से उस स्वभाव के ऊपर तैरते हैं (अर्थात् वे भाव होते हैं तो आत्मा के परिणाम में ही अर्थात् आत्मा में ही) तो भी (वे परमपारिणामिकभाव में) प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते, क्योंकि द्रव्यस्वभाव (द्रव्यरूप आत्मा के 'स्व' का भवनरूप 'स्व'भाव) तो नित्य है (अर्थात् कि ऐसा का ऐसा ही होता है), एकरूप है (अनन्यरूप है, अभेद है, वहाँ कोई भेद नहीं) और ये भाव (अर्थात् कि अन्य चार भाव) अनित्य है, अनेकरूप है, पर्यायें (चार भावरूप पर्यायें-विभावभाव) द्रव्यस्वभाव में प्रवेश नहीं करते, ऊपर ही रहते हैं (वे चार भाव परमपारिणामिकभावरूप द्रव्यस्वभाव में प्रवेश पाते ही नहीं क्योंकि परमपारिणामिकभावरूप द्रव्य स्वभाव सामान्य भावरूप है इसलिए उसमें विशेष भाव का तो अभाव ही होता है अर्थात् विशेष भाव द्रव्यस्वभाव में प्रवेश नहीं करते, ऊपर ही रहते हैं) यह शुद्धस्वभाव ('स्व' के भवनरूप=परमपारिणामिकभाव) सर्व अवस्थाओं में प्रकाशमान है। (आत्मा में तीनों काल है इसलिए ही त्रिकाली शुद्धभाव कहलाता है) ऐसे शुद्धस्वभाव का, मोहरहित होकर जगत अनुभव करो, क्योंकि मोहकर्म के उदय से उत्पन्न मिथ्यात्वरूप अज्ञान जहाँ तक रहता है, वहाँ तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता।' श्लोक १२-'यदि कोई सुबुद्धि (अर्थात् जिसे तत्त्वों का निर्णय हुआ है, ऐसा कि जो सम्यग्दर्शन प्राप्ति की पूर्व की पर्यायों में स्थित है ऐसा) भूत, वर्तमान और भावी ऐसे तीनों काल के (कर्मों के) बन्ध को अपने आत्मा से तत्काल-शीघ्र भिन्न करके (अर्थात् कर्मोरूपी पुद्गलों को अपने से भिन्न जानकर-जड़ जानकर अपने को चेतनरूप अनुभव कर) तथा उन कर्मों के उदय के निमित्त से हए मिथ्यात्व (अज्ञान) को अपने बल से (पुरुषार्थ से) रोककर अथवा नाश करके (ऊपर श्लोक ११ में बतलाये अनुसार चार भावों को गौण करके, अपने को परमपारिणामिकभावरूप अनुभवते ही मिथ्यात्व उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय को प्राप्त होता है अर्थात् अपने को त्रिकाली शुद्धभावरूप परमपारिणामिकभावरूप जानना/अनुभव करनेरूप पुरुषार्थ करे अर्थात्) अन्तरंग में अभ्यास करे-देखे तो यह आत्मा अपने अनुभव से ही ज्ञात होने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है, ऐसा व्यक्त (अनुभवगोचर) ध्रुव (निश्चल) शाश्वत नित्य कर्मकलंक कर्दम से रहित (परमपारिणामिकभावरूप) ऐसा स्वयं स्तुति करनेयोग्य देव विराजमान है।' श्लोक १३-'इस प्रकार जो पूर्व कथित शुद्धनयस्वरूप आत्मा की अनुभूति है (अर्थात् शुद्धात्मा की अनुभूति है) वही वास्तव में ज्ञान की अनुभूति है, ऐसा जानकर (अर्थात् जो आत्मा की अनुभूति है, वही ज्ञान की अनुभूति है, उन दोनों में कुछ भी भेद नहीं है) तथा आत्मा में,
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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