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________________ समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 145 प्रतिबिम्बरूप से पर को झलकाने का है, उस प्रतिबिम्ब को गौण करते ही वहाँ दर्पण की भाँति स्वच्छत्वरूप परिणमन हाजिर ही है और ज्ञान का स्वभाव लोकालोक को झलकाने का है इसलिए ही वह 'ज्ञान' नाम पाता है, अन्यथा नहीं। उस ज्ञेयरूप झलकन को गौण करते ही वहाँ ज्ञानमात्ररूप परमपारिणामिकभावरूप=ज्ञायक हाजिर ही है। इसलिए ‘आत्मा वास्तव में पर को जानता ही नहीं ऐसी प्ररूपणा करके आत्मा के लक्षण का अभाव करने से आत्मा का ही अभाव होता है) और वह आत्मस्वभाव को आदि-अन्त से रहित प्रगट करता है (परमपारिणामिकभाव वह आत्मा का अनादि-अनन्त 'स्व' भवनरूप 'स्व' भाव है और वह त्रिकाल शुद्ध होने से उसे आदि-अन्त से रहित कहा है) और वह आत्मस्वभाव को एक - सर्व भेदभावों से (द्वैतभावों से) रहित एकाकार प्रगट करता है। (सर्व प्रकार के भेदरूप भाव जैसे कि द्रव्य-गुण-पर्याय, ज्ञानदर्शन-चारित्र, निषेधरूप स्व पररूप भावों से रहित प्रगट करता है) और जिसमें समस्त संकल्पविकल्प के समूह विलय हो गये हैं ऐसा प्रगट करता है। (अर्थात् उदय, क्षयोपशमभावों को गौण करते ही परमपारिणामिकभावरूप आत्मा में कुछ भी संकल्प-विकल्प, नय-प्रमाण-निक्षेप इत्यादि रहते ही नहीं - ऐसा आत्मा प्रगट करता है)। ऐसा शुद्धनय प्रकाशरूप होता है।' गाथा १४ गाथार्थ-‘जो नय आत्मा को बन्धरहित और पर के स्पर्शरहित, अन्यपने रहित, चलाचलतारहित, विशेषरहित (अर्थात् विशेष को गौण करते ही जो एक सामान्यरूप भाव अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप जीव है वह अर्थात् अन्य के लक्ष्य से होनेवाले सर्व भाव जो कि विशेष हैं, उनसे रहित ही होता है), अन्य के संयोगरहित-ऐसे पाँच भावरूप देखता है, उसे हे शिष्य! तू शुद्धनय जान।' अर्थात् जैसा हमने पूर्व में बतलाया, वैसे सर्व परद्रव्य तथा परद्रव्य के लक्ष्य से होनेवाले आत्मा के भावों से (उन्हें गौण करके) भेदज्ञान करने से शुद्धनयरूप अर्थात् अभेद ऐसा पंचम भावरूप सम्यग्दर्शन का विषय प्राप्त होता है। गाथा १४ की टीका-'निश्चय से अबद्ध-अस्पृष्ट (आत्मा के उदय, उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक ऐसे चार भावों से अबद्ध-अस्पृष्ट), अनन्य (तथापि आत्मा के परिणमन पर्याय से अनन्य परमपारिणामिकभावरूप=कारणशुद्धपर्यायरूप), नियत (नियम से गुणों के परिणमनरूप), अविशेष (जिसमें विशेषरूप चारों ही भावों का अभाव है ऐसा सामान्य परिणमनरूप सहज परिणमनरूप) और असंयुक्त (कि जो ऊपर कहे, वैसे चार भावों से संयुक्त नहीं है-इन चार भावों को गौण करते ही शुद्धनय का आत्मा प्राप्त होता है, वैसा असंयुक्त) ऐसे आत्मा की जो अनुभूति, वह शुद्धनय है और वह अनुभूति आत्मा ही है, इस प्रकार आत्मा एक ही प्रकाशमान है....'
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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