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________________ दृष्टि का विषय होने से, उस एकान्त से शुद्ध अर्थात् तीनों काल शुद्ध ही है, वह प्रगट हुआ अर्थात् अनुभव में आया इसलिए प्रथम से वह शुद्ध ही होने पर भी उसका अनुभव न होने से, अनुभूति की अपेक्षा से वह प्रगट हुआ कहलाता है) और जो सदा ( टंकोत्कीर्ण चैतन्य सामान्यरूप-अर्थात् ज्ञेयों को गौण करते ही जो जानने-देखनेवाला शेष रहता है, वह तीनों काल वैसा का वैसा ही ज्ञान सामान्यरूप होने से, टंकोत्कीर्ण कहलाता है; दूसरे प्रकार से ज्ञेय विशेष है और वह जिनका बना हुआ हैअर्थात् ज्ञान का, उसे सामान्य ज्ञान अर्थात् चैतन्य सामान्य कहा जाता है) निज महिमा में लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियों को गोचर ( अनुभूति में आता है।' 116 श्लोक २१६-‘यह स्वत: सिद्ध ज्ञान ( अर्थात् ऊपर बतलाये अनुसार का परमपारिणामिकभावरूप सामान्य ज्ञान) पाप-पुण्यरूपी वन को जलानेवाली अग्नि है (अर्थात् अपूर्व निर्जरा का कारण है) महा - मोहान्धकारनाशक (अर्थात् मोह का नाश करके अरिहन्त पद दिलानेवाला है) अति प्रबल तेजमय है। विमुक्ति का मूल है और निरुपाधि महा-आनन्द सुख का (अर्थात् अतीन्द्रिय शाश्वत् सुख का ) दायक है । भव-भव का ध्वंस करने में निपुण (अर्थात् मुक्ति दिलानेवाले) ऐसे इस ज्ञान को मैं नित्य पूजता हूँ।' अर्थात् उसे नित्य भाता हूँ और उसमें ही स्थिरता का पुरुषार्थ करता हूँ। श्लोक २२०-‘जो भवभय के हरनेवाले इस सम्यक्त्व की, शुद्धज्ञान की और चारित्र की भवछेदक (अर्थात् यह सम्यग्दर्शन, शुद्धज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान और उसमें ही स्थिरता करनेरूप चारित्र को भवभय का हरनेवाला कहा है अर्थात् मुक्तिदाता कहा है) अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह काम-क्रोधादि समस्त दुष्ट पाप समूह से मुक्त चित्तवाला जीव-श्रावक हो या संयमी होनिरन्तर भक्त है, भक्त है।' अर्थात् जैन सिद्धान्त अनुसार ऐसी अभेद भक्ति ही कार्यकारी है और इसलिए ऐसी ही भक्ति की इच्छा करना । श्लोक २२७-‘इस अविचलित- महाशुद्ध-रत्नत्रयवाले मुक्ति के हेतुभूत निरुपम - सहजज्ञानदर्शनचारित्ररूप (अर्थात् ज्ञान - दर्शन - चारित्र इत्यादि अनन्त गुणों का सहज परिणमनरूप परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा), नित्य आत्मा में (अर्थात् शुद्धात्मा जो कि नित्य शुद्धरूप ऐसा का ऐसा ही उपजता है अर्थात् परिणमता है ऐसे नित्य आत्मा में) आत्मा को वास्तव में सम्यक् प्रकार से स्थापित करके (अर्थात् उसका ही अनुभव करके और उसका ही ध्यान धरकर ) यह आत्मा चैतन्य चमत्कार की (सामान्य चेतनारूप परमपारिणामिकभाव की) भक्ति द्वारा निरतिशय (अजोड़) घर को-कि जिसमें से विपदायें दूर हो गयी हैं और जो आनन्द से भव्य है, उसे अत्यन्त
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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