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________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 115 श्लोक १९३-'यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह फल है-ऐसे विकल्प जालों से जो मुक्त है (अर्थात् जो निर्विकल्प शुद्धात्मा है) उसे मैं नमन करता हूँ (स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकार से भाता हूँ)।' अर्थात् उसका ही मैं ध्यान करता हूँ और उसमें ही मैंपना' करता हूँ कि जिससे मैं निर्विकल्प होता हूँ अर्थात् अनुभव करता हूँ; अर्थात् किसी भी विकल्परूप ध्यान से इस शुद्धात्मा का निर्विकल्प ध्यान उत्तम है, आचरणीय है जो कि सम्यग्दर्शन के बाद ही होता है। गाथा १२३ अन्वयार्थ-संयम, नियम और तप से तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान से जो आत्मा को ध्याता है, उसे परम समाधि है।' अर्थात् सम्यग्दृष्टि की आगे की भूमिका में जो करनेयोग्य है अर्थात् जो सहज होता है, उसका वर्णन किया है और अन्यों को भी वह अभ्यासरूप से भी करनेयोग्य है। श्लोक २०२-'वास्तव में समतारहित (अर्थात् सम्यग्दर्शनरहित, क्योंकि सम्यग्दृष्टि को ही सच्ची समता बतलायी है) यति को अनशनादि तपश्चरणों से फल नहीं है (अर्थात् मुक्तिरूप फल नहीं है परन्तु संसाररूप फल है जो कि हेय है, इसलिए कहा है कि फल नहीं है); इसलिए हे मुनि! समता का कुलमन्दिर ऐसा जो अनाकुल निजतत्त्व (अर्थात् शुद्धात्मा) उसे भज।' अर्थात् सर्व प्रथम शुद्धात्मा का चिन्तन, निर्णय, लक्ष्य और योग्यता करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करने योग्य है क्योंकि तत्पश्चात् ही सर्व तपश्चरण का अपूर्व फल अर्थात् मुक्तिरूप फल मिलता है, अन्यथा नहीं। श्लोक २०७-'मैं - सुख की इच्छा रखनेवाला आत्मा-अजन्म और अविनाशी ऐसे निज आत्मा को आत्मा द्वारा ही आत्मा में स्थिर रहकर बारम्बार भाता हूँ।' जो कोई परम सुख के इच्छुक हैं उनके लिये एकमात्र शुद्धात्मा का ही लक्ष्य और शुद्धात्मा का ही ध्यान श्रेष्ठ है क्योंकि उससे ही मुक्ति मिलेगी। श्लोक २११-'यह अनघ (निर्दोष=शुद्ध) आत्मतत्त्व जयवन्त है-कि जिसने संसार को अस्त किया है (अर्थात् संसार के अस्त के लिये अर्थात् मुक्ति के लिये यह शुद्धात्मा ही शरणभूतसेवनेयोग्य है), जो महामुनिगण के अधिनाथ के (गणधरों के) हृदयारविन्द में (मन में) स्थित है, जिसने भव का कारण तज दिया है (अर्थात् जो इस भाव में स्थिर हो जाता है, उसे अब फिर कोई भव रहता ही नहीं क्योंकि वह मुक्त ही हो जाता है), जो एकान्त से शुद्ध प्रगट हुआ है (अर्थात् जो सर्वथा शुद्धरूप से स्पष्ट ज्ञात होता है अर्थात् जो तीनों काल शुद्ध ही होता है परन्तु सम्यग्दर्शन
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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