SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थ : अजीर्ण रोग, वमन, श्वास, कास, ज्वर, अर्दित (लकवा-मुंह का पक्षाघात), तृष्णा, मुखपाक, हृदयरोग, नेत्ररोग, शिरोरोग और कर्णरोग से पीड़ित व्यक्तियों को दातुन (दन्तधावन) नहीं करना चाहिए। विश्लेषण : भारत में दातुन (दन्तधावन) करने का विधान बहुत प्राचीन समय से चला आ रहा है। दातुन करने से दांतों की सफाई होती है और दांतों में होने वाले रोग भी दूर होते है। कषाय, कटु और तिक्त रसों से भरपूर वृक्षों के दातुन करना ही अच्छा माना गया हैं। क्योंकि कषाय रस संकोचक होता है। जो दांतों की जड़ों में अर्थात् मसूड़ों में संकोच पैदा करता है और फिर इससे मसूड़े मजबूत होते जाते हैं। मसूड़ों की मजबूती से ही दांतों की मजबूती आती है। तिक्त और कटु रस से लार की उत्पत्ति अधिक होती है। इसी लार (लालाश्राव) से दांतों के सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। दातुन करने से दांतों का मूल (मसूड़े) मजबूत और निरोगी होते हैं। लेकिन कुछ रोगों में दातुन नहीं करने का सुझाव दिया गया है, जैसे अजीर्ण रोग- इस रोग के रोगी व्यक्ति को दातुन करने से बार-बार दन्तमूल (मसूड़ों ) पर घर्षण होता है। इस घर्षण से नाड़ीमण्डलों (नाड़ियों) में क्षोभ (हलचल) उत्पन्न होता है। इस प्रकार शरीर को और अधिक तकलीफ हो सकती है। अजीर्ण, वमन, तृष्णा आदि रोगों से लालाश्राव (लार) की अधिक प्रवत्ति से भोजन का पाचन एवं आमाशय में शुद्धि नहीं हो पाती है। मुंह में जो ग्रन्थियाँ लार पैदा करती हैं, वह लार दातुन करने से बाहर अधिक निकल जाता है। यही लार यदि शरीर के अन्दर जाये तो पाचन करने में सहायक होती है। इसी लार से आमाशय की शुद्धि भी होती है। अतः कुछ विशेष रोगों से पीड़ित व्यक्तियों को दातुन करना निषेध माना गया है। लेकिन जो रोगी दातुन नहीं कर सकते उनके लिये दन्तमंजन का विधान रखा गया है। और जो रोगी किसी भी कारण से दंतमंजन भी नहीं कर सकते हैं, उनके लिये मुख शृद्धि के लिये बारह बार कुल्ला पानी से करने का विधान है। जीभ की शुद्धि के लिये दातुन को चीरकर उपयोग करने की बात कही गयी है। अथवा चांदी या ताम्र (तांबा) की शलाका(जीभ-छीलनी) का प्रयोग भी किया जा सकता है। - सौवीरमन्नं नित्यं हितमक्ष्णोस्ततो भजेत् चक्षुस्तेजोमयं तस्य विशेषाच्छ लेष्मतों भयम् योजयेत्सप्तरात्रेऽस्मात्स्त्रावर्णाथ रसान्जनम् अर्थ : दन्तधावन (दातुन) के बाद आंखों के लिये लाभकारी सौवीर अंजन (काजल या सुरमा) लगाना चाहिए। नेत्र, तेजोमय हैं, अर्थात् आग्नेय हैं। इन नेत्रों को कफ से विशेष भय रहता है। अर्थात् नेत्रों को कफ से बचाना चाहिए। 15
SR No.009376
Book TitleSwadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Dikshit
PublisherSwadeshi Prakashan
Publication Year2012
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy