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________________ 8. अपूर्वकरण गुणस्थानइस अवस्था में पहुँचकर आत्मा कर्मावरण के हल्के हो जाने से विशिष्ट आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करता है। ऐसी स्थिति पूर्व में न हुई हो इसलिए इसे अपूर्व कहा जाता है। विकसित आत्मशक्ति के कारण उसके नवीन कर्मों का बन्ध भी अल्पकारक या अल्प मात्रा में ही होता है। इस अवसर का लाभ उठाकर साधक कर्म वर्गणाओं को ऐसे क्रम में रख देता है कि जिसके फलस्वरूप उनका समय के पूर्व ही भोग किया जा सके। जिस प्रकार बन्धनों में बँधा हुआ व्यक्ति बन्धनो के जीर्ण क्षीण हो जाने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है वही अहसास जीव को अपूर्वकरण की अवस्था में होता है क्योंकि इस स्थिति में मात्र बीजरूप (संज्जवलन) ही माया और लोभ शेष रह जाते हैं। शेष कषायादि भाव या तो क्षीण हो जाते हैं या दमित कर दिए जाते हैं। अपूर्वकरण का शाब्दिक अर्थ है- आत्मपरिणाम अध्यवसाय। जीव स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण तथा स्थितिबंध में पाँच अपूर्व करता है जो उसने पहले न किये हों। इसका अन्य नाम निवृत्तिकरण भी है तथा इसे निवृत्तिबादर भी कहा जाता है। अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथमाशं से ही क्षपक श्रेणी या उपशम श्रेणी का आरम्भ हो जाता है। छठवें-सातवें गुणस्थान में यदि जीव सावधान न रहे तो नीचे गिरता है इसके विपरीत ऊपर की ओर आठवें गुणस्थान में आरोहण करता है। गुणस्थान की उच्च स्थितियों का काल लघु या स्वल्प होता चला जाता है। अष्टम गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। अपूर्वकरण की प्रक्रिया के पाँच चरण हैं1. स्थितिघात 2. रसघात 3. गुणश्रेणी 4. गुणसंक्रमण तथा 5. अपूर्व स्थिति बन्ध। इस अवस्था में साधक आत्मविश्वास से इतना भर जाता है कि वह मोक्ष को अपने अधिकार क्षेत्र की वस्तु समझने लगता है। उपशमक का अर्थ है- उदयाभाव में आई हुई कर्म प्रकृतियों का विनाश न करके उन्हें सत्ता में दबाते हुए आगे बढ़ना। क्षपक का अर्थ है- उदयभाव में आई हुई कर्मप्रकृतियों का क्षय करते हुए आगे बढ़ना। उपशम श्रेणी आत्मा को निर्मल तो करती है किन्तु 11वें गणस्थान से ऊपर नहीं चढ़ने देती यहाँ आयुष्य पूर्ण कर जीव स्वर्ग में जाता है तथा पतित होने पर मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी आ सकता है और अधोगति का पात्र बनता है। इस गुणस्थान से क्षपक या उपशम श्रेणी का आरम्भ होता है। क्षपक श्रेणी वाला महात्मा 10वें गुणस्थान से सीधा 12वें गुणस्थान में चढ़ता है और मोक्षगामी बनता है। क्षपकश्रेणी जीव को एक ही बार प्रप्त होती है। उपशम श्रेणी जीव को मात्र 4 बार प्राप्त है एक भव में अधिकतम दो बार। आठवां गुणस्थानवर्ती आत्मा क्षपक कहलाता है यदि कर्म क्षय आरम्भ कर दे। शमन करने की स्थिति में उसे उपशम कहते हैं। जैसे रसायन सेवन से शरीर की पुष्टि होती है उसी प्रकार इन चार भावनाओं के सेवन से धर्मध्यान की पुष्टि होती है(अ) मैत्री- परहित चिंता मैत्री
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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