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________________ देती हैं। यदि देहातीत भाव की अवधि इससे अधिक हो जाती है तो वह आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर श्रेणियों में चला जाता है। अप्रमत्तसंयत नामक इस गुणस्थान में प्रमाद के अवसरों की संख्या 37500 कही गई है जो 25 विकथाएं, 25 कषाय, 6 मनसहित पाँच इन्द्रियां, 5 निद्राएं, 2 राग-द्वेष का गुणनफल है। इस गुणस्थान से ऊपर की श्रेणी में चढ़ने हेतु आत्मा आठवें गुणस्थान में वासनारूपी कर्म शत्रुओं को जीतता है तथा नवमें गुणस्थान में अवशिष्ट वासनारूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है फिर शेष रहता है मात्र सूक्ष्म लोभ। इस पर आध्यात्मिक युद्ध के समय दो प्रकार से प्रहार होता है- पहला है उनका क्षय जिसके चलते वह 11वें गुणस्थान को स्पर्श किए बिना सीधा 12वें गणस्थान में पहुँच जाता है। जबकि दसरा तरीका है उससे उपशम व क्षयिक श्रेणी के द्वारा बचाव करने का जिसमें ।। वे गुणस्थान में पहुँचता है जहाँ पतनोन्मुख होने का विधान है। महव्रतों को धारण करने वाला मुनि संज्वलन नामक चौथे कषाय व नौकषायों के मेद होने और पाँच प्रकार के प्रमाद का अभाव होने पर अप्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान को प्राप्त होता है। वह जीव सम्यक्त्व- समकित सह सावधयोग का परिस्याग कर अन्तर्मुख साधना में पूर्ण रूप से लीन हो जाता है। छठवें गुणस्थान तक द्रव्यलिंगी (बाह्य) पुरुषार्थ का प्रकटीकरण या नैतिक आचरण की अपेक्षा रहती है उसके बाद के गुणस्थान में भावलिंग (आन्तरिक) तप वांछनीय है। अप्रमत्त गुणस्थान के इसके दो भेद हैं 1. अप्रमत्तविरत- जो असंख्यात बार छठवें से सातवें और सातवें से छठवें गुणस्थान में आता रहता है उसे अप्रमत्तविरत कहते हैं। 2- सातिशय अप्रमत्तविरत- जो जीव श्रेणी चढ़ने के सम्मुख हो उसे सातिशय अप्रमत्तविरत कहते हैं। यहाँ जीव अन्तर्मुहूर्त के लिए रहता है। -चौथी संज्वलन कषाय का उदय होने पर महाव्रतधारी मुनि प्रमाद रहित होने पर इस अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त करता है। कषाय नाम शेष रह जाते हैं। (विषय, राग, निद्रा, विकथा और कषायवृत्ति का प्रमाण। - इस गुणस्थान में जीव दर्शन सप्तक की सात प्रकृतियों को छोड़कर मोहनीय कर्म प्रकृतियों का क्षय या उपशम करने हेत उदयत बनता है यहाँ उसके साथ होता है व्रत शील युक्त ज्ञान, ध्यानरूप धन और मौनी आत्मा। - इस गुणस्थान में आत्मा मन, वच काय से पाँच महाव्रतों का पालन, (प्राणातिपात विरमण, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह का सर्वथा त्याग) दस धर्म अंगीकार (उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन एवं व्रह्मचर्य), पंचेद्रिय निग्रह, चार संज्ञा(राग) का त्याग- आहार, भय ,परिग्रह और मैथुन का त्याग आदि करता है।
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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