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________________ कि नरकायु का बंध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण नहीं होता। सासादन गुणस्थान मिथ्यात्व गुणस्थान और उससे ऊपर के गुणस्थान के मध्य की स्थिति है जब कोई जीव ऊपर के गुणस्थानों से गिरता है तो नीचे के गुणस्थानों में पहुँचने के पहले की स्थिति को सासादन गुणस्थान कहा जाता है। जैसे पहाड़ की चोटी से यदि कोई आदमी लुढ़के ते जब तक वह जमीन पर नहीं आ जाता तब तक यह भी नहीं कहा जासकता कि वह ऊपर है या जमीन पर। इस गुणस्थान में जीव पतोन्मुख अवस्था में आते हुए क्षणिक विश्राम करता है। सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नियम से नीचे मिथायात्व गुणस्थान में ही गमन करता है। जैसेकोई फल पेड़ से नीचे गिर रहा हो तो वह नियम से नीचे जमीन पर ही गिरता है बीच के अन्तराल में वापस पेड़ पर नहीं जा सकता है वैसे ही सासादन जीव का सम्यक्त्व छूटने से मिथ्यादृष्टि होना ही अनिवार्य है फिर भी मिथ्यात्व गुणस्थान से यथा सम्भव ऊपर के सर्व गुणस्थानों में पुनः पुरुषार्थ से गमन करना सम्भव है। अर्थात् अन्य शब्दों में- सम्यकदर्शन रूपी रत्नगिरि के शिखर से जो जीव मिथ्यात्व भूमि की ओर अभिमुख हो चुका है , सम्यक्त्व-(सम्यग्दर्शन) नष्ट हो चुका है किन्तु अभी मिथ्यात्व भी प्राप्त नहीं हुआ है उसे सासादन गुणस्थानवर्ती कहा जाता है। सम्मत्तरयणपव्वय सिहरादो, मिच्छभूमिसममिमुहो। णासिद सम्मत्तो सो, सासणणामो मुणेयव्वो।। (ध.21 2|11| 1661 गा. 108 गो.जी.20) सम्यक्त्व रूपी रत्न शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्व रूपी भूमि के सम्मुख हो चुका है, अतएव जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो रहा है परन्तु अभी तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है, उसे सासन या सासादन गुणस्थानवर्ती कहते हैं। शास्त्रों में सास्वादन गुणस्थान को ससादन के नाम से लिखा गया है जो कि उसका प्राचीन रूप मालूम होता है इसलिये इस शब्द का प्रयोग ज्यों का त्यों किया गया है। द्वितीय क्रम में स्थित यह गुणस्थान विकास क्रम का परिणाम न होकर पतनोन्न्मुख अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। अर्थात जब आत्मा चतर्थ गुणस्थान से पतित होकर प्रथम गुणस्थान में गिरती है तब उसे तृतीय व द्वितीय गुणस्थानों से होकर गजरता है। यह एक मध्यावस्था है जिसमें जीव को तो सम्यग्दृष्टि कहा जा सकता है और न ही मिथ्यादृष्टि। ऐसी दशा में जीव सम्यक्त्व से च्यत तो हो चुका है किन्तु अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है। इस मध्यावधि काल क्षणिक(छः अवली) होता है। यथा वृक्ष से टूटकर फल का जमीन तक पहुँचने का मध्यकाल। यदि मिथ्यात्व को अयथार्थ बोध और सम्यक्त्व को यथार्थ बोध के रूप में परिलक्षित करें तो सास्वादन (स + आस्वादन) वह स्थिति है जिसमें मोहासक्ति के चलते अयथार्थता में जाने से पूर्व यथार्थता का क्षणिक आस्वादन या आभास रहता है ठीक उसी प्रकार जैसे वमन के पश्चात वामित वस्तु का आस्वाद। सासादन गुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल 6 आवली मात्र है। सास्वादन गुणस्थान में 5 स्थावर को छोड़कर 19 दण्डक होते हैं जबकि अविरत गुणस्थान में 24| 30
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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