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________________ श्रवण व समझाना मिथ्याज्ञान है। आत्मिक शुद्धता के स्थान पर ख्याति, लाभ, सम्मान व धन आदि की चाह में केवल शरीर को कृश(दुर्बल) करने वाली क्रियाएं तथा जिन के विपरीत क्रियाओं को पोषित करने वाला आचरण करना गृहीत चारित्र है। __ आचार्य हरिभद्र ने मार्गाभिमुख अवस्था के चार विभाग बताए हैं- मित्रा, तारा, बला व द्रीपा। यद्यपि इन सभी वर्गों में रहने वाली समस्त आत्माएं असत् दृष्टिकोण वाली होती हैं तथापि प्रगाढ़ता के प्रमाण में अंतर होने से उपरोक्त भेद तर्कसंगत हैं। जैसे-जैसे आत्मा मिथ्यात्व गुणस्थान में उत्तरार्ध की ओर बढ़ती है वैसे - वैसे असत् भाव बोध की गहनता कम होती जाती है. मिथ्यात्व भाव की अल्पता होते ही अंतिम चरण में आत्मा प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण एवं अनावृत्तिकरण नामक ग्रंथभेद की प्रक्रिया से गुजरते हुए चतुर्थ गुणस्थान में सफलता से प्रवेश कर लेती है। गुणस्थान के परिप्रेक्ष्य में मिथ्यात्व के कुछ अन्य भेद (प्रथक नामों से) भी बताये गये हैंमिथ्यात्व गुणस्थान- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय की ये उदय-जन्य अवस्था है। मोहनीय कर्म के औदायिक परिणाम ही मिथ्यात्व मोहनीय कर्म है। मिथ्यात्व मोहनीय के पांच भेद हैं(अ) अभिग्रहिक मिथ्यात्व- तत्त्व बोध के अभाव में पदार्थ का यथार्थ अर्थ न समझने की चेष्टात्मक जड़ता। आगम विरुद्ध कुलाचार को प्राथमिकता देना। जो तत्त्व परीक्षा करने में असमर्थ हो किन्तु गुराश्रित हो जिन वचनों में श्रद्धावान हो वह समकिती है। (ब) अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व- जड़ता नहीं किन्तु मिथ्यात्व का भी विरोध नहीं-सत्य असत्य की परीक्षा किये बिना सही दर्शनों को समान मानना अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है। यहां तत्त्व दर्शनस्वदर्शन का अज्ञान जरूर है किन्तु आग्रह नहीं। (स) अभिनवेशक मिथ्यात्व- असत्य को ही सत्य सिद्ध करने का हठाग्रह- अपना पक्ष असत्य होने पर भी उसे सत्य सिद्ध करने हेतु आग्रहशील बनना अभिनवेशक मिथ्यात्व है। सम्यक्त्व में सन्देह के चलतेव्यवस्थाओं-असत्य मानकर उन्हें गलत सिद्ध करने का आग्रह रखना। (द) सांशयिक मिथ्यात्व- जिन वचन की प्राथमिकता पर संदेह- जिन वचनों के प्रति शंकाशील बनना सांशयिक मिथ्यात्व है। (य) अनाभोगिक मिथ्यात्व- असमझ-शक्ति क्षमता जनित मिथ्यात्व - जीव की जड़ता हठपूर्ण भागीदारी नहीं होती- पंचेन्द्रिय जीव जो मुग्धावस्था में हैं तत्त्व-अतत्त्व को समझने की शक्ति से रहित हैं, तथा एकेन्द्रिय जीवों को होने वाला मिथ्यात्व को अनाभोगिक मिथ्यात्व कहा जाता 2. सास्वादन गुणस्थान सम्मत्तो रयण पब्ब विहरादोमि।। सम्यक्त्व की विराधना = आसादन तथा आसाद = सासादन यह गुणस्थान 11वें और चौथे गुणस्थान से पतन के (फलस्वरूप) बाद प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदि का उदयादि नही होता। इस गुणस्थान वाले जीव का नरकायु का बंध नहीं होता है। अर्थात् यह भी कहा जा सकता है 29
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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