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________________ (ग) दुःख निरोघः (दुःख से मुक्ति)- तीसरा आर्य सत्य यह है कि दुःख का निरोध संभव है। दुःख के कारणों(लोभ, तृष्णा) को हटा देने से दुःख स्वतः समाप्त हो जाते हैं। अतः तृष्णा पर अंकुश वाछनीय है। इसको ही निर्वाण अर्थात मुक्ति का पुरुषार्थ कहा गया है। (घ) दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपत् ( दुःख निरोधगामी मार्ग)- चौथा आर्य सत्य यह है कि इन दुःखों से छूटा जा सकता है। दुःख से छुटकारा पाने के आठ मार्ग हैं यथा- सम्यक ज्ञानदृष्टि जो सदाचार व बुराई में भेद ज्ञान कर सके। सम्यक् संकल्प कषायादि विकल्पों को त्यागने हेतु दृढ़ मनोबल व इच्छाशक्ति, सम्यक् वाणी जिसमें विनम्रता व मृदुता का पुट हो एवं असत्य कठोर निन्दनीय व अर्थहीन वार्तालाप से दूर रहना।, सम्यक् कर्मान्त वस्तुओं में आसक्ति न रखते हुए सत्कर्म करना।, सम्यक् आजीविका जीवन यापन हेतु नैतिक दृष्टि से जो निषेधित मार्ग हैं उनका अनुकरण न करना।, सम्यक् व्यायाम अर्थात् आचार विचारों की शुद्धता को ध्यान में रखकर धर्मदृष्टियुक्त आचरण करना।, सम्यक् स्मृति अर्थात् आत्म सतर्कता- समस्त कार्यों को इस प्रकार करना कि आत्मा व शरीर पर नियन्त्रण रखा जा सके।, सम्यक् समाधि चार महान सत्यों को ध्यान में रखते हुए चित्त को एकाग्र करना। (सही विश्वास, सही इरादे, सही भाषण, सही आचरण, सही जीवन यापन, सही प्रयत्न, सही मानसिक व्यवस्था और सही ध्यान = शुद्ध अंतःकरण व विवेकयुक्त ज्ञान का प्रकटीकरण) । ये ही बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग हैं इनके पालन से ही निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है। टिप्पणी- उपरोक्त दशाओं को जैन दर्शन में वर्णित आध्यात्मिक अविकास से विकास की स्थितियों - आश्रव (कर्म बंध के कषायादि कारण), बंध (कषायादि प्रवृत्तियों में आसक्ति अर्थात् लालच तृष्णा), संवर (लोभरूप प्रवृत्ति पर रोक अर्थात् भावी बंध का दृढ़इच्छाशक्ति पूर्वक निरोध) तथा निर्जरा (पुरुषार्थपूर्वक इन कषायादि प्रवृत्तियों का दमन जिसके परिणाम स्वरूप निश्चित रूप से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।) के साथ तुलनात्मक पटल पर देखा जा सकता है। बौद्ध दर्शन के दो प्रमुख सम्प्रदायइस दर्शन के दो प्रमुख सम्प्रदाय हीनयान और महायान हैं। दोनों का लक्ष्य व साधनाक्रम आपस में नितान्त भिन्न है। हीनयान का आदर्श है- अर्हत और महायान का बोधिसत्व। अर्हत वह साधक है जो अपने ही अर्थात् व्यक्तिगत निर्वाण के लिए सदा उद्योगशील रहता है जबकि बोधिसत्व का लक्ष्य व्यक्तिगत स्वार्थ की जगह समूचे प्राणियों के परमार्थ का होता है। इसलिए वे स्व निर्वाण से संतुष्ट न होकर अधिकतम लोगों को निर्वाण का अनुभव कराना चाहते हैं। हीनयान में निर्वाण को दुःखरूप व महायान में आनन्दरूप माना जाता है। 145
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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