SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान तक पहुँचता है तो वहाँ भी अन्तर्मुहुर्त की अस्थाई उपशान्त स्थिति के पश्चात इन शमित नकारात्मक मनोवृत्ति जनित परिणामों का पुनः प्रकटीकरण हो जाता है और वह पतोन्मुखी गति करता है। सकारात्मक मनोवृत्ति मोह, रागादि भाव एवं शुभ-पुण्य कर्मों की ओर जीव को प्रेरित करने में सहाय-रूप होती है। इस तरह का रुझान रखने वाले जीव के यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषाय की तीव्रता नहीं होती फिर भी आध्यात्मिक विकास की इस यात्रा को अंतिम मुकाम तक पहुँचने में मोह रूप कर्म प्रकृतियाँ बाधक हो सकती हैं। सकारात्मक सोच वाला साधक स्व के साथ-साथ साधर्मी जीवों के प्रति सहयोग का भाव रखते हुए कल्याणोन्मुखी बनता है। उसके आचरण में सत् का प्रभाव देखने को मिलता है। यह आत्मा धीरे-धीरे उत्क्रांति द्वारा तटस्थता की ओर बढ़ने की मानसिक परिपक्वता हाँसिल करने का प्रयास करती है। इसकी तुलना गीता में वर्णित रजो-सत्वगुण अवस्था से की जा सकती है। सकारात्मकता नैतिक या चारित्रिक जैसे व्यवहारिक पहलू से सरोकार रखती है। अतः गुणस्थान विकास क्रम की अपेक्षा से इस मनोवृत्ति जनित भाव की उपस्थिति चतुर्थ गुणस्थान के उत्तरार्द्ध से दसवें गुणस्थान तक देखी जा सकती है। जैसे-जैसे आत्मा ऊपर के गुणस्थानों में आरोहण करता है वैसे-वैसे इस कल्याणकारी वृत्ति का विस्तार कम होता जाता है और उसी प्रमाण में तटस्थता पूर्ण मनोवृत्ति का प्रभाव जीव की यात्रा के उत्कृष्ट सोपानों में दिखता है। बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में सकारात्मक मनोवृत्ति की अल्पाशं झलक मिलती है। तेरहवें एवं चौदहवे गुणस्थानों में सकारात्मक व नकारात्मक मनोभावों का सर्वथा अभाव हो जाता है और रह जाती है निर्विकल्परूप तटस्थ मनोवृत्ति जिसमें न इच्छा है और न चंचलता। इसी प्रकार इस आध्यात्मिक विकास की यात्रा में मूल्यों के प्रभाव को समझा जा सकता है। व्यक्ति के जीवन अर्थात सोच एवं व्यवहार के प्रतिमान जिस आन्तरिक वृत्ति के आधार पर संचालित होते हैं उन्हें मूल्य कहा जाता है। ये मूल्य उसे वशांनुगत विरासत या वातावरण से मिलते हैं जिसे निमित्त, नियति या पूर्व जन्मों का कर्म फल माना जा सकता है वहीं अच्छा संयोग सदबुद्धी पाकर व्यक्ति अपने एवं दूसरों के हित संरक्षण की आकांक्षा से पुरुषार्थ दवारा सद् मूल्यों का विकास कर लेता है। ये मूल्य ही उसकी सोच को एक नियत दिशा प्रदान करते हैं। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने मनोभावों पर नियन्त्रण करता है और अपनी जीवन चर्या को एक विशिष्ट तरीके से संचालित करता है। एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है कि व्यक्ति में सत्-असत् दोनों ही प्रकार के मूल्यों का समुच्चय होता है किन्तु समय विशेष पर कौन सा मूल्य अधिक क्रियाशील होगा इसका निरूपण उसके व्यवहार में दृष्टिगोचर होने लगता है। मनोविज्ञान में विभिन्न मूल्य विभेद के उदाहरण हैं यथा 119
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy