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________________ मनोवृत्ति एवं मूल्य-(Attitude and Values) मॉर्गन ने प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि अभिवृत्ति एक प्रकार का पूर्वाग्रह है जो अनुकूल, प्रतिकूल व तटस्थ रूप में किसी घटना या बात पर प्रक्षेपित होता है। संवेगों की मूल प्रवृत्ति के सृजन में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। अभिवृत्ति को अर्जित विश्वास की संज्ञा भी दी जाती है। इसमें परिवर्तन संभव है। ये भावों की दशा- दिशा तय करने में केन्द्रीय स्थिति में होते हैं। मनोवृत्ति एवं मूल्य व्यक्ति की सोच व व्यवहार को निर्देशित करते हैं- मनोवृत्ति का रुझान या झुकाव । अन्य शब्दों में मनोवृत्ति को वह स्थायी मानसिक धारणा कहा जा सकता है जो आसक्तिवश उसके द्वारा वस्तु या तत्त्व विशेष के संदर्भ में बाँधी गयी हो और इसी से सम्बद्ध हैं मूल्य अवधारणा । जैसे एक लायब्रेरियन की दृष्टि में सभी ग्रन्थ समान हैं अथवा कीमत, शीर्षक व अन्य किसी आधार पर श्रेणीकृत है किन्तु संशोधक -विद्यार्थी के लिए उसके मूल्यानुरूप निहित उद्देश्य एवं अर्थ है जिसका विशिष्ट महत्व हो सकता है। मूल्यों के चलते ही व्यक्ति किसी वस्तु की अहमियत का आंकलन करता है यथा धर्मानुरागी व्यक्ति के लिये प्राचीन शास्त्र अमूल्य धरोहर हो सकती है वहीं आर्थिक मूल्यधारी उसी वस्तु को अमूल्य मानता है जिसमें अपेक्षाकृत लाभार्जन का प्रमाण अधिक हो। वस्तुतः यहाँ वस्तु का स्वयं में कोई मूल्य व महत्व नहीं होता अपितु मूल्य या स्थान निर्धारित होता है व्यक्ति में रहे उन शाश्वत मूल्यों से जो उसकी तर्क शक्ति को नियत दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं । इस प्रकार मूल्य व मनोनृत्ति दोनों ही मन प्रधान घटक हैं जो आन्तरिक भावों एवं बाह्य व्यवहार को प्रमाणित करते हैं। मनोवृत्ति को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है 2 अ- सकारात्मक मनोवृत्ति आत्मा शुभ व कल्याणकारी प्रवृत्तियों में रत हो सकती है। ब- नकारात्मक मनोवृत्ति- यह द्वेष भाव से प्रेरित मानसिक झुकाव है जिसमें कषायादि परिणामों की तीव्रता रहती है फलस्वरूप पाप कर्म का बंध होता है। स- तटस्थ मनोवृत्ति - यह राग द्वेष रहित मनोवृत्ति मानी जाती है इसमें सभी क्रियाऐं ( योगिक क्रियाऐं ) निष्क्रिय हो जाती हैं। यह मोह-आसक्ति व रागात्मक झुकाव से प्रेरित हैं। इसमें मनोवृत्ति के इन उप-भागों का प्रभाव गुणस्थानों में देखा जा सकता है जैसे- कषाय, वासना, द्वेष व कृष्ण, नील, कापोत लेश्या जनित परिणामों से जीव सम्यकत्व रहित गुणस्थानों अर्थात, मिथ्यात्व, सासादन व मिश्र गुणस्थानों को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त यदि आत्मा कर्म विशुद्धि के मार्ग पर उपशम विधि को अपनाकर ग्यारहवें 118
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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