SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थसूत्र के रचियता उमास्वामिजी संभवत: दर्शनमोह व चारित्रमोह दोनों में पहले उपशम फिर क्षय मानते हैं। तप- तप से निर्जरा व संवर दोनों होते हैं। वासनाओं को क्षीण करने तथा समुचित आध्यात्मिक शक्ति की साधना के लिए शरीर, इन्द्रिय व मन को जिन-जिन उपायों से तपाया जाता है वह तप है। तप मुख्यतः दो प्रकार के हैं- बाह्य तप और अभ्यन्तर तप। तपसा निर्जरा च||3|| बाह्य तप- जिसमें शारीरिक क्रियाओं की प्रधानता हो वे बाह्य तप है। अनशन,अवमौदर्य या उनोदरी, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्याशन और कायक्लेश आदि इसके 6 भेद हैं। अभ्यन्तर तप- आत्मा को शुद्ध करने वाले आन्तरिक तप अभ्यन्तर तप कहलाते हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इनके 6 भेद कहे हैं। प्रायश्चित तप के आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, छेद, परिहार और उपस्थान आदि 9 उप-भेद हैं। इसी प्रकार विनय तप के 4 उप-भेद हैं- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और र विनय। वैयावृत्ति तप के आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल संघ तथा मनोज 10 उप-भेद हैं। स्वाध्याय तप के वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश आदि 5 भेद हैं। व्युत्सर्ग तप के 2 उप-भेद हैं- बायोपधिव्युत्सर्ग तथा आभ्योन्तरोपधिव्युत्सर्ग। तथा ध्यान तप के 4 उप भेद हैं- आर्त, रौद्र, धर्म एवं शुक्ल ध्यान। ध्यान एवं गुणस्थानतत्त्वार्थसूत्र में वर्णित आध्यात्मिक विकास की जो ध्यानादि स्थितियां उल्लखित हैं उनकी भी तुलना गुणस्थान से की जा सकती है। ध्यान तप का मुख्य लक्षण है चित्त को रोकना। एक पदार्थ ध्यान उत्तम संहननधारी जीवों के ही होता है जिसका काल अनतर्महुर्त से अधिक नहीं होता। गुणस्थान के आरोहण-पतन पथ में यह धयान देने योग्य है। आर्तध्यान- अनिष्ट पदार्थ का संयोग होने पर उसे दूर करने हेतु बार बार विचार करना(अनिष्ट संयोग), स्त्री पुत्रादि का वियोग होने पर उसके संयोग के बार बार चिन्ता करना(इष्ट वियोगज), रोगजनित पीड़ा का बार बार चिन्तवन करना(वेदनाजन्य) तथा आगामी काल सम्बन्धी विषयों की प्राप्ति में चित्त को तल्लीन करना(निदानज) आदि आर्तध्यान हैं। चौथे पाँचवें व छठवें गुणस्थानों में इनकी उपस्थिति होती है किन्तु छठे गुणस्थान में निदानज ध्यान का अभाव होता है। 105
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy