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________________ कौन से परिषह किस कर्म के उदय से होते हैं? ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने।।13।। दर्शनमोहोन्तरायलाभौ।।14।। चारित्रमोहेनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरुस्कार।।15।। वेदनीयेशेषाः।।16।। ज्ञानावरण कर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान, दर्शनमोहनीय और अन्तराय कर्म के उदय से क्रमशः दर्शन और अलाभ, चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरुस्कार(7) तथा वेदनीय कर्म के उदय से शेष 11- क्षुदा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध तृणस्पर्श और मल आदि परिषह होते हैं। (इ) सम्यक्त्व चारित्र के भेद(5)- समयक्त्व चारित्र व्यवहारनय से साधना की विशुद्धि का शुद्ध साधन है जो गुणस्थान के उच्चतम शिखर तक ले जाने में सहायक होता है। सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म तथा यथाख्याति चारित्र आदि तत्त्वार्थ सूत्र में इसके 5 उपभेद कह गए हैं। गुणस्थान एवं निर्जरा का परिमाणसम्यग्दृष्टि, पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावक, विरत(मुनि), अनन्तानुबन्धी की कषायों की विरादना करने वाला, दर्शनमोह का क्षय करने वाला, चारित्र मोह का उपशम करने वाला, उपशान्त मोह वाला, क्षपकश्रेणी चढ़ता हुआ, क्षीणमोह वाला-12वां गुणस्थानवर्ती तथा जिनेन्द्र भगवान इन सबके परिणामों की विशुद्धता की अधिकता से आयु कर्म को छोड़कर प्रतिसमय असंख्यातगुणी निर्जरा होती रहती है। कर्म निर्जरा के प्रसंग की 10 स्थितियों को तत्त्वार्थ सूत्र के 9वें अध्याय में इस प्रकार कहा गया हैसम्यग्दृष्टि-श्रावक विरतानन्त-वियोजक-दर्शनमोह, क्षपकोपशमकोपशान्त-मोहक्षपक क्षीणमोह जिनाः क्रमशोसंख्येय-गुणनिर्जरा।।4511 सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्त वियोजक, दर्शन मोह क्षपक (चारित्र मोह) उपशमक, उपशान्त (चारित्र) मोह, क्षपक और क्षीण मोह आदि अवस्थाएं उपर्युक्त सूत्र में स्पष्ट की गई हैं जिनकी समानता गुणस्थान के सोपानों के साथ एक सीमा तक की जा सकती है। यदि अनन्त वियोजक को अप्रमत्तसंयत, दर्शनमोहक्षपक को अपूर्वकरण, उपशमक (चारित्र मोह) को अनिवृत्तिकरण और क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय मानें तो गुणस्थान के साथ इनकी तुलना की जा सकती है। क्षपक श्रेणी को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि दर्शनमोहक्षपक की स्थिति अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान जैसी है किन्तु समस्या यहाँ उत्पन्न होती है कि आठवें गुणस्थान से क्षपक श्रेणी आरम्भ होती है जबकि तत्त्वार्थसूत्र में यहाँ दर्शनमोह का पूर्ण क्षय मान लिया गया है। गुणस्थानों में क्षीणमोह 12वाँ गुणस्थान है। 104
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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