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________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में अवसर्पिणी के अंतिम तीन काल (कर्म भूमि) - 43 जिस भूमि में असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प, वाणिज्य आदि कर्म की प्रधानता हो, वह कर्मभूमि है। इसके अन्तर्गत जिन दुःषमादि तीन काल विभागों की गणना की जाती है, वे विभाग कृषि आदि षट्कर्म प्रधान होने के कारण कर्मभूमि के नाम से अभिहित किये जाते हैं। जैन, परम्परानुसार वर्तमान कल्पार्द्ध में कर्मभूमि की व्यवस्था के आद्य संस्थापक राजा ऋषभदेव थे। उन्होंने ही जीविकोपार्जन के लिये भारतवासियों को सर्वप्रथम षट्कर्मों का उपदेश दिया । अंतिम कुलकर नाभिराय के पुत्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एवं उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत भी सुषमा–दुषमा नामक तीसरे काल में ही उत्पन्न हुये। इसी काल में ऋषभदेव का निर्वाण भी हो गया। यद्यपि तृतीय काल भोगभूमि का काल है, तथापि इस काल के अंतिम चरणों में ही कर्मभूमि का प्रारंभ हो गया था। 128. . तिलोयपण्णत्ती, 4/1287 अवसर्पिणी का चतुर्थ काल (दुषमा- सुषमा) - अवसर्पिणी काल के प्रारंभ से 9 कोड़ाकोड़ी सागर तक चलता हुआ भोगभूमि का काल समाप्त होने के पश्चात् 1 कोड़ाकोड़ी सागर में 42000 वर्ष कम प्रमाण वाला दुषमा-सुषमा नामक चौथा काल प्रारंभ होता है । यह काल ऋषभदेव के निर्वाण जाने के 3 वर्ष, 8 माह 15 दिन पश्चात् प्रारंभ हुआ। 128
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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