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________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में क्रमा नाम समस्या/ परिस्थिति । उपदेश/समाधान आकाश में चन्द्र-सूर्य को ये चन्द्र-सूर्य नित्य ही हैं, 1. प्रतिश्रुति देखकर प्रजा भयभीत थी। तेजांग जाति के कल्पवृक्षों का तेज मंद पड़ने से अब प्रगट हुये हैं, इसप्रकार सूर्य-चन्द्र का परिचय देकर | प्रजा का भय दूर किया। सूर्य के अस्त होने पर तेजांग कल्पवृक्ष सर्वथा नष्ट अंधकार और तारा पंक्तियों हो चुके हैं, ऐसा ज्ञान | 2. सन्मति को देखने से प्रजा में उत्पन्न कराकर अंधकार और भय। तारागणों का परिचय देकर भय दूर किया। व्याघ्रादि तिर्यंचों में क्रूर काल के विकार से ये| | 3. |क्षेमंकर परिणामों को देखकर प्रजा तिर्यंच क्रूरता को प्राप्त हुये| में भय व व्याकुलता। हैं, अतः अब इनका विश्वास | कदापि नहीं करना, ऐसा | दिव्य उपदेश दिया। क्रूरता को प्राप्त सिंहादि उन क्रूर तिर्यंचों से अपनी | 4. क्षेमन्धर तिर्यंचों द्वारा मनुष्यों का सुरक्षा के उपायभूत दण्डादि भक्षण। रखने का उपदेश दिया।। कल्पवृक्ष अल्प फलवाले हुये, कल्पवृक्षों की सीमाओं के 5. सीमंकर मनुष्यों में लोभ की वृद्धि निर्धारण द्वारा पारस्परिक होने से उनके स्वामित्व में संघर्ष पर रोक । परस्पर झगड़ा। । । | 6. सीमन्धर कल्पवृक्षों की अत्यन्त हानि कल्पवृक्षों को चिन्हित करके के कारण कलह में वृद्धि। उनके स्वामित्व का विभाजन। 7. विमलवाहन गमनागमन में बाधा/पीड़ा हाथी, घोड़ा आदि की सवारी का अनुभव। तथा वाहनों के प्रयोग का| उपदेश।
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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