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________________ अध्ययन ५ उ. १ गा. ४७-४८-दानार्थोपकल्पिताहारनिषेधः ४३७ छाया-अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वाद्यं तथा । यज्जानीयात् शृणुयाद्वा, दानार्थ प्रकृतमिदम् ॥४७॥ तद्भवेद्भक्त-पानं तु, संयत्तानामकल्पिक(त)म् । ददती मत्याचक्षीत, न मे कल्पते तादृशम् ॥४८॥ सान्वयार्थः-ज-जो असणं ओदन आदि अशन पाणगं=दाख आदिका धोवन वावि-अथवा खाइमं केला आदि खाद्य तहा और साइम-एलची लूंग आदि स्वाध इमं यह 'दाणहा' पथिकों को देनेके लिए पगड-उपकल्पितनिकाला हुआ है जो अपने या अपने कुटुम्बके लिए काममें नहीं लाया जावे ऐसा जाणेज्ज-जान लेवे वा=अथवा सुणिज्जा--किसीसे सुन लेवे तो तंबह भत्तपाणं तु आहार-पानी संजयाणं-साधुओंके लिए अकप्पियं-अकल्पनीय भवे होता है, (अतः) दितियं देती हुईसे साधु पडियाइक्खेकहे कि तारिसइस प्रकारका आहारादि मे-मुझे (लेना) न कप्पइ-नहीं कल्पता है ।।४७-४८॥ टीका-'असणं०' इत्यादि, 'तं भवे०' इत्यादि च । यत् अशनं भोज्यमोदन-पूरिकादिकं, पानकंन्द्राक्षादिनलम् , अपिवा=अथवा खाद्यं कदलीफलादिकं, स्वायम् एला-लवङ्ग-कर्पूर-पूगीफलादिकम् , 'दानार्थ-देशान्तरादागतेन वणिगादिना साधुवादार्थ स्वकीयप्रशंसानिमित्तं दातुम् , इदं प्रकृतं नियतरूपेणोपकल्पितम्' इति जानीयात्-आमन्त्रणादिना अवगच्छेत् , शृणुयाद्वा=कुतश्चि'असणं०' इत्यादि, तथा 'तं भवे०' इत्यादि। ओदन-आदि अशन, दाखका जल आदि पान, केला आदि खाद्य, लोंग, कपूर, इलायची, सुपारी आदि स्वाद्य, 'यह देशान्तरसे आये हुए वणिक आदिने अपनी प्रशंसाके निमित्त देनेके लिये रक्खा है।' ऐसा जो समझे या किसीसे सुने तो वह अशनादि, संयमियोंको कल्पनीय नहीं है, असणं त्यादि, तथा तं भवेत्याहि. એદન આદિ અશન, દ્રાક્ષના ધાવણનું જળ આદિ પાન, કેળાં આદિ माध, बी, ५२, सायची, सोपारी स्वाध, “ ! देशान्तरथी माता વણિક આદિએ પિતાની પ્રશંસાને લીધે આપવાને માટે રાખેલ છે.” એવું જે સમજવામાં કે કઈ પાસેથી સાંભળવામાં આવે તે એ અશનાદિ સંયમીઓને
SR No.009362
Book TitleDashvaikalika Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages725
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size21 MB
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