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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥५६२॥ • उपाध्याय सुधर्मा नामक पण्डित भी अपने संशय को दूर करने के लिये पांचसौ शिष्यों के साथ प्रभु के पास पहुंचे । [पहूय तं कहेइ - भो सुहम्मा !] प्रभु ने कहा- हे सुधर्मन् ! [तुज्झमसि एयारिस संसओ वइ] तुम्हारे मन में ऐसा संशय हैं कि [जो इह भवे जारिस होइ सो पर भवे वि तारिसो चेव होउं उप्पज्जइ] जो जीव इस भव में जैसा होता है, परभव में भी वैसा ही होकर उत्पन्न होता है, [जहा सालिववणेण साली चेव उप्पज्जेति नो जवाइयं] जैसे शालि बोने से शालि ही उगते हैं जो आदि नहीं ['पुरुषो वैं पुरुत्वमनुते पशव पशुत्वम्' ] इच्चाइ वेयवयणाओत्ति ] वेद वचन भी ऐसा है कि• पुरुष पुरुषत्व को प्राप्त होता है । [तं मिच्छा] तुम्हारा यह विचार मिथ्या है [मदवाइ गुणजुत्तो मणुस्सा बंधइ सो पुणो मणुस्सत्तणेण उप्पज्जइ] जो मृदुता आदि गुणों से युक्त जीव मनुष्यायुका बन्ध करता है वह मनुष्य रूपसे उत्पन्न होता है । [ जो उ मायामिच्छा गुणजुत्तो होइ सो मणुसत्तणेण नो उप्पज्जइ, तिरियत्तणेण उत्पज्जइ ] जो सुहम्माभि पंडितस्य शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च ॥५६२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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