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________________ सुहम्मा करपसूत्रे सन्दाथें ॥५६ भिध पंडितस्य शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च त्तीए कारणं नत्थि तं तु केवलं तेसिं सरीरुप्पत्तीए चेव कारणं। गोमयाइरूवकारणस्स विंछियाइ सरीररूवकज्जस्स य अणुरूवया अत्थि चेव, जओ गोमइए रूवस्साइ पुग्गलाणं जे गुणा होति तं चेव गुणा विछियाइ सरीरे वि उवलब्भंति । एवं कज्जकारणाणं अणुरूवया सीगारे, वि एयं न सिज्झइ जं-जहा पुव्वभवो तहेव उत्तरभवो वि होइ । वेएसु वि वुत्तं-श्रृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते' इच्चाइ। अओ भवंतरे वेसारिस्सं भवइ जीवस्सत्ति सिद्धं । एवं सोऊणं नट्ठ संदेहो सोवि पंचसयसिस्सेहिं पहुसमीवे पव्वइओ ॥१७॥ शब्दार्थः-[चउरो वि पंडिया पहुसमीवे पव्वइयत्ति सुणिय] इन्द्रभूति अग्निभूति वायुभूति, और व्यक्त चारों ही पण्डित दीक्षित हो गये, यह सुनकर [उवज्झाओ सुहम्माभिहो पंडिओ वि नियसंसयछेयण, पंचसयसिस्सपरिवुडो पहुस्स अंतिए समागओ] I ॥५६१॥ TATAI :.. ,
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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