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________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थ ॥५१८॥ घोर गुणी [ घोरतवस्सी] घोर तपस्त्री [घोरबंभचेरवासी] घोर ब्रह्मचारी [उच्छूढसरिरे ] देह की ममता से रहित [ संखित्तविउलतेउलेसे] विशाल तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके रहनेवाले [चउदसपुथ्वी] चौदह पूर्वो के ज्ञाता [चउणाणावगए ] चार ज्ञानों से संपन्न [सव्वक्खरसण्णिवाइ] और समस्त अक्षरों के ज्ञाता थे [समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ] श्रमण भगवान् महावीर से न अधिक दूर और न अधिक नजदीक [उट्टजाणू अहोसिरे] उपर घूटने और नीचा सिर किये [झाणकोट्टोव गए] ध्यान रूपी कोष्ठ में प्राप्त होकर [संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विरइ] संयम और तपसे अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ॥१३॥ भावार्थ- - उस कालमें और उस समय में अर्थात् जब इन्द्रभूति अपने शिष्य परिवार के साथ, गर्व सहित, भगवान् महावीर के समीप पहुंचे तब भगवान् 'हे गौतम गोत्र में उत्पन्न इन्द्रभूति ! इस पद से संबोधित करके कल्याणकारिणी इन्द्रसूतेः शङ्कानिवारणम् प्रतिबोधश्च ॥५१८||
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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