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________________ कानिवारणम् प्रतियोधश्च कल्पसूत्रे । वचनगुप्ति और कायगुप्ति से गुप्त, गुप्तेन्द्रिय गुप्त ब्रह्मचारी [चाई वणेलज्जू तवस्सी खंति सशब्दार्थे खमें जिइंदिए सोही आणियाणे अप्पस्सुए अवहिल्ले सामण्णरए इणमेव निग्गंथं पाव- ॥५१७॥ यणं पुरओ कटु विहरइ] त्यागी, वनकी लज्जावंती वनस्पति के समान पाप से लज्जित होने वाले, तपस्वी क्षमा करने में समर्थ जितेन्द्रिय, चित्त शोधक, निदान रहित अत्वरित स्थीर समीचीन संयम में लीन ! इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके विचरने लंगे [से णं इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्ते सत्तुस्सेहे] वह गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति | नामक अणगार सात हाथ उंचे [समचउरंससंठाणसंठिए] समचतुरस्त्रसंस्थानवाले [वज्जरिसहनारायणसंघयणे] तथा वज्झ ऋषभ नाराचसंहनन से युक्त [कणग पुलग निघसपम्हगोरे] एवं सुवर्ण के टुकडे की कसोटी पर घिसी हुइ रेखा के समान तथा कमल की केसर के समान गौर वर्ण के थे [उग्गतवे] उग्र तपस्वी [दित्ततवे] दीप्त तपस्वी [तत्ततवे] तप्ततपस्वी [महातवे] महातपस्वी [उराले] उदार [घोरे] घोर [घोरगुणे] ॥५१७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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