SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनिहर्षिणी टीका अ. ५ चित्तसमाधिस्थानवर्णनम् मनोगतवस्तुपरस्तेन मनोगतवस्तुविषयकज्ञानमिति तदर्थः, मनःपर्यवश्च तज्ज्ञानं मनःपर्यवज्ञान-मनोगतपदार्थविषयकं ज्ञानं विशिष्टं, तस्य सामान्यज्ञानेन सह 'सामान्यविशेषयोरभेद एव संसर्गः' इति नियमादभेदसम्बन्धेनान्वयस्तथा चायमर्थः पर्यवसित-मनोगतपदार्थविषयकबोधरूपं ज्ञानं यथा-नीलधटोऽपि घट एव । यद्वा-मन शब्दस्य मनोवर्तिपदार्थे 'मश्चाः क्रोशन्ती' त्यादिवल्लक्षणया मना मनोवर्तिपदार्थम्-अवति-अवगाहते विषयीकरोतीति मन पर्यवं पचादित्वादच्' तच्च ज्ञानं मनःपर्यत्रज्ञानं-समयक्षेत्रस्थसंज्ञिमनोगतपदार्थावगाहि ज्ञानमिति तदर्थः। यद्वा-मनसः = भवात्मकस्य पर्यवः = सम्यगवबोधः मनःपर्यवज्ञानं, समुत्पद्येत-जायेत । ८ अष्टमे तस्य केवलकल्पं-केवलः परिपूर्णो यः कल्पत उसका सामान्य ज्ञान के साथ अभेद रहता है । अर्थात् इस ज्ञान में वस्तु का निर्णय विशेषरूप से ही होता है सामान्य रूप से नहीं। अतः यह ताप्तर्यार्थ निकलता है कि-मन में रहें हुवे पदार्थ को विषय करने वाला बोधरुप ज्ञान, जैसे नील घट भी घट ही है। अथवा 'मन' शब्द का अर्थ लक्षणा से 'मन में रहे हुए पदार्थ' अर्थ होता है । मनः मनोवर्ती पदार्थ को अवति-विषय करता है वह 'मनःपर्यव' है ऐसे ज्ञान को मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। अर्थात् मनुष्यक्षेत्र में रहने वाले संज्ञि पञ्चेन्द्रिय के मनोगत पदार्थों का विषय करने वाला ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान है। ___अथवा-'मनपर्यव' शब्द का अर्थ मन का सम्यग् ज्ञान, ऐसा होता है। मनविषयक सम्यक् बोधरूप ज्ञान मनःपर्यवज्ञान कहलाता है, वह उत्पन्न होता है। (८) आठवे समाधिस्थान में केवलज्ञान તેને સામાન્ય જ્ઞાનની સાથે અભેદ રહે છે અર્થાત આ જ્ઞાનમાં વસ્તુને નિર્ણય વિશેષ– રૂપથીજ થાય છેસામાન્યરૂપથી નહિ તેથી એ તાત્પર્ય નિકળે છે કે મનમાં રહેલા પદાર્થને વિષય કરવાવાળુ બોધરૂપ જ્ઞાન, જેમકે-નીલઘટ પણ ઘટજ છે. अथवा-'मन:' शनी अर्थ रक्षाथी 'मनमा रहेसो पहाथ' सेवे। થાય છે. મન =મનોવતી પદાર્થને અવતિ=વિષય કરે છે તે મન પર્યવ છે એવા જ્ઞાનને મન:પર્યવજ્ઞાન કહેવાય છે અર્થાત મનુષ્યક્ષેત્રમાં રહેવાવાળા સ ઝિપ ચન્દ્રિયના મનોગત પદાર્થોના વિષય કરવાવાળું જ્ઞાન મન.પર્યવજ્ઞાન છે ___ - अथवा-'मनःपर्यव' शहना अर्थ भन्न सक्यम् ज्ञान मेवा थाय छे. मन વિષયના સફ બોધરૂપ ગન મન:પર્યવજ્ઞાન કહેવાય છે, તે ઉત્પન્ન થાય છે (૮)
SR No.009359
Book TitleDashashrut Skandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages497
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy