SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 641
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ८, शौर्यदत्तवर्णनम् मत्स्यान् ‘तलिए भज्जिए सोल्लिए य' तलितान् भर्जितान् शौल्यान्-शूलपक्यांश्च 'आहारेमाणस्स' आहारयता भुञ्जानस्य 'मच्छकंटए' मत्स्यकण्टकः 'गलए' गलेगलबिले 'लग्गे यावि' लग्नश्चापि 'होत्था' अभवत् । 'तए णं से सारियदत्ते मच्छंधे' ततः खलु स शौर्यदत्तो मत्स्यबन्धः 'महयाए वेयणाए' महत्या वेदनया 'अभिभूए समाणे' अभिभूतः पीडितः सन 'कोडुंबियपुरिसे' कौटुम्बिकपुरुषान् = स्वकर्मकरपुरुषान् 'सद्दावेइ' शब्दयति 'सदावित्ता' शब्दयित्वा 'एवं बयासी' एवमवादीत् 'गच्छह णं' गच्छत खलु 'तुब्भे देवाणुप्पिया' यूयं हे देवानुप्रियाः ! 'सोरियपुरे णयरे' शौर्यपुरे नगरे "सिंघाडन जाव पहेसु' शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वरमहापथपथेषु महया२ सदेणं महतार शब्देन उच्चस्वरेण उग्घोसेमाणा२' उद्घोषयन्तः२ एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयह' वदत-' एवं खलु देवाणुप्पिया' एवं खलु हे देवानुप्रियाः ! 'सोरियहत्तस्स' शौर्यदत्तस्स 'मच्छकंटए' मत्स्यमछलियों को कि जो 'तलिए भज्जिए सोल्लिएय' तली हुई भुंजी हुई एवं शलों पर रख कर पकाई हुई थीं 'आहारेमाणस्स' खा रहा था 'मच्छकंटए गलए लग्गे यावि होत्था' तब गले में मछलियों का कांटा लग गया। 'तए णं से सोरियदत्ते मच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूए समाणे' इससे उस शौर्यदत्त मच्छीमार ने बहुत ही प्रबल वेदना से आक्रन्त होकर 'कोडुंबियपुरिसे सदावेइ' अपने नौकर-चाकरों को बुलाया । 'सदावित्ता एवं बयासी' और वुलाकर इस प्रकार कहा 'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सारियपुरे णयरे सिंघाडण जाव पहेसु' हे देवानुप्रिय ! आप लोग शौर्यपुर नगर में जाओ, ओर शृङ्गाटक आदि मागों में 'महया२ . सदेणं उग्धोसेमाणा२ एवं वयह' बडे २ जोर के शब्दों से यह घोषणा करो कि "एवं खलु देवाणुप्पिया ! सोरियदत्तस्ल मच्छकटए गलए लग्गे' 'तलिए भज्जिए सोल्लिए ' तणेसी, सुन्सी अने त्रा: ५२ सभीन. ५४वटी ती ते 'आहारेमाणस्स' माती तो, तेपामा ' मच्छकंटए गलए लग्गे यावि होत्था' तेनां मां भासीन xit साध्या. 'तए णं से सोरियदत्ते मच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूए समाणे' तथा ते शौयत्त भन्छीमा२ घjlar ॥३४ वेहनाथी मात मनाने 'कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ ' पाताना ना४२ या२ने पाताना पासे मालाव्यो, 'सदावित्ता एवं बयासी' मालावीन माप्रमाणे यु 'गच्छह णं तुब्भे. देवाणुप्पिया ! सोरियपुरे णयरे सिंघाडग जाव पहेसु' देवानुप्रिय! तमे सी शीय ५२ नगरमा , भने शूट४ मा भार्गाभा 'महयारसदेणं उग्रोसेमाणा२ एवं वयह ' मोटा मोटाहार शहाथी से घोष। ४३। ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! सोरियदत्तस्स मच्छकंटए गलए लग्गे' के वानुप्रियो !
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy