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________________ विपाक चन्द्रिका टीका श्रु. १, अ. ७, उदुम्बरदत्तवर्णनम् ५६७ 'पणामं करेइ' प्रणामं करोति प्रणमति, प्रणामं 'करिता' कृत्वा 'लोमहत्थं ' रोमहस्तं = मयूरपिच्छमार्जनीं 'परामुसई' परामृशति = स्पृशति गृह्णातीत्यर्थः । 'परामुसित्ता' परामृश्य = गृहीत्वा 'उंवरदत्तं जक्खं' उदुम्बरदत्तं यक्षं 'लोमहत्थ एणं' रोमहस्तकेन 'मज्जइ' प्रमार्ष्टि प्रमार्जयति = रजोऽपनयतीत्यर्थः, 'पमज्जित्ता' प्रसाय = रजोऽपनिय 'दगधाराए' दकधारया - उदकधारया 'अन्भुक्खेइ' अभ्युक्षति, 'अन्युक्खित्ता' अभ्युक्ष्य 'पम्हल० ' पम्हलसुकुमालाए 'गंधकासाइयाए' इति संग्राह्यम् । पक्ष्मलसुकुमारया= सुकोमलरोमवत्या गन्धकापायिकया= सुगन्धियुक्तकषायरङ्गरञ्जितशाटिकया सुगन्धिनस्त्रेणेत्यर्थः 'गायलहिं' गात्रयष्टि =यक्षशरीरं 'ओलूss' अवरुक्षयति=शुष्कं करोति, प्रोञ्छतीत्यर्थः 'ओलूहित्ता ' अवरूक्ष्य 'सेयाई स्थाई' श्वेतानि वस्त्राणि 'परिहे' परिधापयति, 'परिहित्ता' परिधाप्य 'उवागच्छित्ता' यक्षायतन में पहुँचते ही उसने 'उबरदत्तस्स जक्खस्स' ज्यों ही उदुम्बरदन्त यक्ष को 'आलोए' देखा त्यों ही 'पणाम करेइ' उसे प्रणाम किया । 'करिता लोमहत्थं परामुसइ' प्रणाम करने के अनन्तर उसने वहीं पर रखी हुई मयूरों के पंखों की बनी एक पीछी उठाई 'परामु सित्ता उंबरदत्तं जक्खं लोमहत्थरणं पमज्जइ' उठा कर उसने उस उदुंबरदत्त का उस पीछी से प्रमार्जन किया । ' पमज्जित्ता दगधाराए अ०भुक्खे' प्रमार्जन कर उसने जलकी धारा से उसका अभिषेक किया । 'अब्भुक्खित्ता पहल० गायलट्ठि ओलूहेइ' अभिषेक करने के अनन्तर उसने उस यक्ष के शरीर के जलकणों को एक ऐसे वस्त्र से साफ किया जो महीन, कोमल एवं सुगंधित कषाय रंग से रंगा हुआ था । 'ओलूहित्ता सेयाई वत्थाई परिहे' जब यक्ष के शरीर के जलकण बिलकुल शुष्क हो चुके, तब उसने फिर उसे सफेद वस्त्र पहिराये 'परिहित्ता जक्खस्स' 'भ्यां उहुणरहत्त यक्षने 'आलोए' लेया ते वसते 'पणामं करेइ' तेने अशुभ अर्था 'करिता लोमहत्थं परामुसई' प्रणाम अर्या च्छी तेथे त्यां भागण रहेली भारना यींछानी भनेसी मे चींछी सीधी. 'परामुसित्ता उवरदत्तं जक्खं लोमहत्थ एणं पमज्जइ' पींछी बने ते ते उहुरत्तने ते यींछी वडे प्रभान, 'पमज्जित्ता दगंधारया अक्खेइ' प्रभात ने यछी रसधारा वडे तेने मलिषे. 'अब्भुक्खित्ता पहल० गायलट्ठि ओलूहेइ' मलिषे पछी तेथे ते यक्षना शरीरનાં જલકણાને એક એવા વસ્ત્રથી સાફ કર્યા કે જે પાતલુ, કામળ, અને સુગ ંધિત કષાય रंगधी रंगैव हेतु, ' ओलूहित्ता सेयाई वत्थाई परिहेर ' न्यारे यक्षना शरीरना संभाग शुष्थ गया, त्यारे तेने श्वेत वस्त्र पहेराव्यां, 'परिहित्ता महरिहं
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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