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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० ४, शकटवर्णनम् .. एवं खलु सामी! सगडे दारए मम अंतेउरंसि अवरखे । तए णं से महचंदे राया सुसेणं अमचं एवं वयासी-तुमं चेव णं देवाणुप्पिया सगडस्स दारगस्स दंडं णिवत्तेहि । तए णं से सुसेणे अमच्चे महच्चंदेणं रण्णा अब्भणुण्णाए समाणे सगडं दारयं सुदरिसणं च गणियं एएणं विहाणेणं वज्झं आणवेइ । तं एवं खलु गोयमा ! सगडे दारए तं पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं जाव विहरइ ॥ सू ११ ॥ टीका 'इमं च णं' इत्यादि । 'इमं च णं सुसेणे अमच्चे पहाए जाव' इतश्च खलु सुषेणोऽमात्यः स्नातः यावत् 'सव्वालंकारविभूसिए' सर्वालंकारविभूषितः, 'मणुस्सवग्गुराए' मनुष्यवागुरया-मनुष्यसमूहेन 'परिक्खित्ते' परिक्षिप्तः=वेष्टितः, 'जेणेव सुदरिसणाए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छई' यत्रैव सुदर्शनाया गणिकाया गृहं तत्रैवोपागच्छति, "उवागच्छित्ता सगडं दारयं मुदरिसणाए सद्धिं 'इमं च णं०' इत्यादि। 'मुसेणे अमच्चे' एक समय की बात हैं कि जब सुषेण अमात्य सुदर्शना वेश्या के घर जाने के लिये इच्छुक हुआ, तब उसने सर्व प्रथम 'हाए जाब सव्वालंकारविभूसिए' स्नान आदि क्रियाएँ की और उनसे निपट कर योग्य समस्त अलंकारों से अपना शरीर सुसज्जित किया । 'मणुस्ल वग्गुराए परिक्खित्ते' सर्व प्रकार से सुसज्जित होकर यह मनुष्यों से परिवेष्टित होकर 'जेणेव सुदरिसणाए गणियाए गिहे' जहां उस सुदर्शना वेश्या का घर था 'तेणेव उवागच्छइ' वहाँ पहुँचा 'उवागच्छित्ता' पहुँचते ही उसने 'सगडं दारयं सुदरिसणाए सद्धिं उरालाई 'इमं च णं० ४त्या. "सुसेणे अमच्चे' मे सभयनी वात न्यारे सुषेय मंत्री सुश ना 'वेश्याना ३२ ४१ भाटेनी २छ। ४२; त्या तेणे सौथा प्रथम 'हाए जाव सव्वालं कारविभूसिए ' स्नान मा स्यामा ४४ी मने ते मथी निवृत्त धन योग्य प्रा२ना तमाम मरोथी पोताना शरीरने शायु-Alera यु 'मणुस्सवग्गुराए परिक्खित्ते ' सब ४२थी सlord थया पछी ते मनुष्यानी साथे महान "जेणेव सुदरिसणाए गणियाए गिहे' या ते सुदर्शना वेश्यानुं घर हेतु 'तेणेव उवागच्छई' त्यां परयो 'उवागच्छित्ता' पडायता ४ तेथे 'सगडं दारयं सुद
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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