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________________ ३२० विपाकश्रुते ण्डकानि, कुक्कुटाण्डकानि च, 'अण्णेसिं चेव वहणं' अन्येषां चैव बहूनां 'जलयरथलयर-खहयर-माईणं' जलचर-स्थलचर-खेचरादीनाम् , 'अंडाई' अण्डानि 'गेण्डेति' गृह्णन्ति । 'गेण्हित्ता' गृहीत्वा 'पत्थियपडिगाई' पत्थिकापटिका: वंशदलिकनिर्मितभाजनानि वस्त्रनिर्मितभाजनानि च भरेंति'भरन्ति पूरयन्ति। 'भरित्ता' भृत्वा पूरयित्वा, जेणेव' यत्रैव 'णिण्णए' निर्नयः 'अडिवाणियए' अण्डवाणिजकः, 'तेणेव उवागच्छंति' तत्रैवोपागच्छन्ति, 'उवाच्छित्ता' उपागत्य 'णिण्णयस्स अंडवाणियस्स' निर्नयस्याण्डवाणिजकस्य 'उवणेति' उपनयन्ति-पुरतः स्थापयन्ति । __ 'तए णं तस्स अंडवाणियस्स वहवे पुरिसा' ततः खलु तस्य निर्नयस्याण्डवाणिजकस्य बहवः पुरुषाः 'दिण्णभइभत्तवेयणा' दत्तभृतिभक्तवेतनाः 'वहुए काइअंडए य जाव कुक्कुडिअंडए य अण्णेसिंच वहणं जल-थल-खहयरमाईणं अंडए' बहूनि काकाण्डकानि च, यावत् कुक्कुटाण्डकानि च, अन्येषां च वहूनां जल-स्थ-लखेचरादीनामण्डकानि 'तवएमु य' तपकेपु' तवा' इतितथा और भी जलचर, थलचर एवं खेचर आदि पक्षियों के अंडों को ढूंढ२ कर ग्रहण कर लेते और 'गेण्हित्ता पत्थियपडिगाइं भरेंति' मिलने पर अपनी२ टोकरियों में अपने२ थेली में भर लिया करते थे। 'भरित्ता जेणेव णिण्णए अंडवाणियए तेणेव उवागच्छंति' और भर कर निय अंडव्यापारी के यहाँ ले आते 'उवागच्छित्ता णिण्णयस्स अंडवाणियस्स उवणेति' एवं लाकर उस अंडव्यापारी को सौंप देते । _ 'तए णं तस्स णिण्णयस्स बहवे पुरिसा' उस निर्नय व्यापारी के यहां ऐसे भी और कई मनुष्य काम पर नियुक्त थे जो 'काइ-अंडए य जाव कुक्कुडिअंडए य अण्णेसिं च वहूर्ण जल-थल-खयर-माईणं अंडए' उन कौवी आदि के अंडों को एवं जल, थल और खेचर आदिकों के अंडों को 'तवएसु य' तवों पर रखकर 'कंडुएसु य' कडाहियो में मेय२ मा पक्षियान ने न्या त्यांथी शीधी-शाधान भगवता भने ‘गेण्डित्ता पत्थियपडिगाई भरति मेगा साधन योतानी साथ सा टोपीयोमा थेवामामा मरता ता 'भरित्ता जेणेव णिण्णए अंडवाणियए तेणेव उवागच्छंति' भने मरीने पछी निर्नयाना वेपारीने ३२ सावता ता. 'उवागच्छित्ता णिण्णयस्स अंडवाणियस्स उवणेति' मने ते ना वेपारीने सांपी हेता ता. 'तए णं तस्स णिण्णयस्स वहवे पुरिसा' त निनय वेपारीने त्यां मेवा भासाने आम५२ गाउदा तारेमा 'काइअंडए य जाव कुक्कुडिअंडए य अण्णेसिंच बहूणं अंडए' ते 1131 माहिना म तया स. थर भने मेयर माहि पक्षियोना माने. 'तवएसु य तापामा रामान 'कंडएम'
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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