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________________ . विपाकश्रुते वर्षाणि 'सामण्णपरियागं' श्रामण्यपर्याय-संयमपर्याय पाउणना' पालयित्वा, 'आलोइयपडिकते' आलोचितप्रतिक्रान्तः-आलोचितं-गुरवे निवेदितं यदतिचा रजातं तत् प्रतिक्रान्तं-गुरूपदिष्टप्रायश्चित्तेन पुनरकरणप्रतज्ञया विशोधितं येन स तथा, 'समाहिपत्ते' समाधिप्राप्तः-समाधि-शुभध्यानम् प्राप्त: उपगतः, 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'सोहम्मे कप्पे' सौधर्म कल्पे-प्रथमे देवलोके, 'देवत्ताए' देवत्वेन 'उववज्जिहिइ' उत्पत्स्यते । 'से णं तओ अणंतरं चयं स खलु ततोऽनन्तरं चयं-शरीरं-देवदेहमित्यर्थः, 'चइत्ता' त्यक्त्वा, 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे-महाविदेहक्षेत्रे 'जाई कुलाई भवंति' यानि कुलानि भवन्ति 'अड्ढाई' आढयानि, तेषां खलु अन्यतरस्मिन् कुले पुत्रतयोत्पत्स्यते । 'जहा दढपइन्ने यथा दृढप्रतिज्ञः-औपपातिकसूत्रे यथा दृढप्रतिज्ञनामको भव्यो वर्णितस्तथाऽयमपि वाच्य इत्यर्थः। 'सा चेव वत्तव्यया' सैव वक्तव्यता-या दृढसंयमभाव का पालन कर, 'आलोइयपडिकंते' अपने लगे हुए अतिचारों को गुरुदेव से निवेदन कर, और उनके द्वारा कथित शुद्धि के अनुसार फिर नहीं करने की प्रतिज्ञा से उनका संशोधन कर, 'समाहिपत्ते' शुभ-ध्यानरूप समाधि में लवलीन हो, 'कालमासे कालं किच्चा' अपने आयुकर्म की स्थिति पूर्ण होने पर काल कर वहां से 'सोहम्मे कप्पे' सौधर्म-नामक प्रथम देवलोक में 'देवताए उववज्जिहिइ' देवरूप में उत्पन्न होगा। 'से णं तओ अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे जाई कुलाई भवंति अढाइं जहा दढपइन्ने सा चेव वत्तव्बया, कलाओ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सइ' पश्चात् अपनी पूर्ण आयु का परिभोग कर उस देवपर्याय का परित्याग कर वह वहां से च्यवकर, महाण्णपरियागं पाउणित्ता' ते भुनि-मवस्थामा भने वर्षा सुधा श्रमण-पर्याय -संयभमापने पाणी, 'आलोइयपडिते' ताने दागेका मतियारीने शुरु દેવ પાસે નિવેદન કરી, અને તેમણે કહેલી શુદ્ધિને અનુસરીને ફરીથી અતિચાર नड ४२वानी प्रतिज्ञाथी तेनु सशधिन ४२ 'समाहिपत्ते' शुभध्यान३५ समाधिमा तीन छ, 'कालमासे कालं किच्चा', मन पोताना माध्यमानी स्थिति यता भरण ५.भान त्यांची 'सोहम्मे कप्पे' सीधनाना प्रथम हेपसभा 'देवत्ताए उववज्जिहिइ' १३५मा प- थशे. 'से णं तओ अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे जाई कुलाइं भवति अड्ढाइं जहा दढपइन्ने सा चेव वत्तव्यया कलाओ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सइ' पछी पोताना पूर्ण मायुष्यने सागवाने ते देवपर्यायनी त्यास ४ी, त्यांथा. यवान, भूविक्षेत्रमा
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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