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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० १, मृगापुत्रस्यानागतभववर्णनम् १८१ . ......... टीका.. .. .. 'से णं' इत्यादि । 'से णं' स खलु 'उम्मुक्कबालभावे' उन्मुक्तबालभावः बाल्यावस्थामतिक्रान्तः, "विण्णायपरिणयमेत्ते' विज्ञातपरिणतमात्रः-विज्ञातम्-विज्ञान-विशिष्टं ज्ञातं, तत् परिणतमात्रं यस्य स तथा, परिपक्वविज्ञान इत्यर्थः, 'जोधणगमणुपत्ते' यौवनकमनुप्राप्तः, 'तहारूवाणं थेराणं अंतिए' तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके 'धम्म' धर्म 'सोचा निसम्म मुंडे भवित्ता' श्रुत्वा निशम्य मुण्डो भूत्वा, 'अगाराओ' अगारात् अगारं गृहं परित्यज्येत्यर्थः, 'अगगारियं पव्वइस्सई' अनगारितां प्रजिष्यति-साधुत्वं प्राप्स्यति । 'से गं तत्थ अणगारे भविस्सइ' स खलु तत्र अनगारो भविष्यति । कीदृशः ? इत्याह-'ईरियासमिए' ई-समितः विवेकपूर्वकगमनवान् 'जाव' यावद् 'गुत्त बंभयारी' गुप्त ब्रह्मचारी पूर्ण ब्रह्मचर्यपालकः ‘से णं तस्थ बहूई वासाई स खलु तत्र बहूनि 'से णं तत्थ' इत्यादि । 'सेणं तत्थ वह पुत्र, वहां 'उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमेत्ते जोवणगमणुपत्ते' कौमार-अवस्था बीत जाने पर परिपक्वविज्ञानवाला हो, जब यौवन-अवस्था में प्राप्त होगा, तब "तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म' तथारूप स्थविर आचार्यों के समीप धर्म का श्रवण और उसे हृदय में धारण कर 'मुंडे भवित्ता' मुंडित हो "अगाराओ' गृहका परित्याग करके 'अणगारियं पन्चइस्सइ' अनगारअवस्था को अंगीकार करेगा। ‘से णं तत्थ अणगारे भविस्सइ, ईरियासमिए जाव बंभयारी' वह मुनि पांच समिति और तीन गुप्ति का आराधक और गुप्त ब्रह्मचारी होगा। “से णं तत्थ बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता' वह उस अवस्था में अनेक वर्षों तक उस श्रमणपर्याय का से णं तत्थ० इत्यादि. ‘से णं तत्थ' ते पुत्र त्यो 'उम्मुक्कवालभावे विण्णायपरिणयमेत्ते जोवणगमणुपत्ते ' मायावस्था पूरी यया पछी परि५४५-विज्ञान थछने न्यारे युवान-अवस्थामा माशे, त्यारे 'तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म' તથારૂપ સ્થવિર આચાર્યોની પાસે જઈ ધર્મને સાંભળી, તે ધર્મને હૃદયમાં ધારણ કરીને ‘मुंडे भवित्ता' भुडित धने. 'अगाराओ' धरना परित्याग ४शने 'अणगारियं पव्वइस्सइ भागार (साधु)-मस्थाने म४.२ ४२२. 'से णं तत्थ अणगारे भविस्सइ ईरियासमिए जाव वंभयारी' पछी ते भुनि पांय समिति, नए गुप्तिना माराध मने गुप्तब्रह्मयारी थशे.' से णं तत्थ वहूइं वासाइं साम
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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