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________________ विपाकचन्द्रिका टीकाश्रु० १,अ० १, मृगापुत्रं, द्रष्टुं गौतमस्थ भूमिगृहे गमनम् . १०३ .....'तए णं सा मियादेवी' ततः खलु सा मृगादेवी ‘परम्मुही' पराङ्मुखी विमुखी भूमिगृहस्य द्वारं 'विहाडेइ विघाटयति- उद्घाटयतीत्यर्थः । 'तओ. णं ततः= तस्माद् भूमिगृहात् खलु 'गंधे निग्गच्छइ गन्धो निर्गच्छति-दुर्गन्धो वहिनि सरतीत्यर्थः । कीदृशः स दुर्गन्धः? इति दृष्टान्तं प्रदर्शयितुमाह-'से जहानामए' स यथा नामकम्-'नामकम्' इति वाक्यालङ्कारे, सः दुर्गन्धः यथा यत्प्रकारस्तथा दृष्टान्तेन दर्शयतीति भावः । तथा हि-'अहिमडेइ वा' अहिमृतक इति वा, 'इति वा' उभयमपि वाक्यालङ्कारे, अहिमृतकस्य यथा गन्धो भवेदित्यर्थः, यथा मृतसर्पकलेवरस्य गन्धो दुःसहस्ततोऽप्यनिष्टतरो गन्ध इत्यग्रेऽन्वयः, 'जाव' यावत्-इह यावच्छन्दाल-"गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा, दीवगमडेइ वा, मज्जारमडेइ वा, मणुस्समडेइ वा, महिसमडेइ वा, मूसगमडेइ वा, आसमडेइ बा, हथिमढेइ वा, सीहसडेइ वा, वग्घमडेड वा, विगमडेइ वा, दीवियमडे वा" इति । अस्य छाया-गोमृतकः, शुनकमृतकः दीपकमृतका, मार्जारमृतकः, 'दशबैकालिक सूत्र' के प्रथम अध्ययन की 'आचारमणिमञ्जूषा' नाम की टीका में देख सकते हैं । भृगादेवी के वचन से जब गौतम स्वामीने वस्त्र से नाक को बांध लिया, 'तए णं तव 'सा मियादेवी' उल स्मृगादेवीने ‘परम्मुही'. तिरछा सुख करके 'भूमिघरस्स दवारं विहाडेइ' उस भूमिधर-सोयरे के हार को खोल दिया, खुलते ही 'तओ णं' उसले 'गंधे निग्गच्छ' दुर्गन्ध निकली। ‘से जहा नामए' बह कैसी थी ? सो कहते हैं'अहिमडे इ वा जाव' जिस प्रकार यहाँ यावत् ' शब्द से 'गोमडे इवा, मुणगमढे इवा, दीवगमडे इ वा, मज्जारमडे इबा, मगुस्समडे इ वा, महिसमडे इबा, मूसगमडे इ वा, आसमडे इ वा, हत्थिमडे इ वा, सोहमडे इ वा, लाषा रामता डाय तेभो ‘दशवकालिक मुत्र' ना पडला अध्ययननी 'आचारमणिमंजूपा' नामनी मानले. 'भृवाना क्यनथी गौत५२वाभीमे पलथी न्यारे नाने disa eीधु, 'तए णं' त्यारे 'सा मियादेवी ते भृगावा 'परम्ममुही' वा भुग शन 'भूमिघरस्स दुवारं विहाढेइ' ते सायरांनी ६२वाले धाया. Sustice 'तओ णं' तमाधी 'गंधे निग्गच्छइ' दुर्गन्ध नी४), 'से जहा नामए' ते ४ी ती ?, ४ छे-'अहिमडे इ वा जाव' रे रे सपना महत, ही 'यावत् २०४थी 'गोमडे इ वा, सुणगमडे इ वा, दीवगमडे इ वा, मज्जारमड़े इ वा, मणुस्समडे इ. वा, महिसमडे हवा, मूसगमटे इ वा, आसमडे इ वा, हत्यिमढे इ. वा,
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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