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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० १, अ० १, विजयनृप-मृगादेव्योवर्णनम् . ६१... ' मन्दरो मेरुगिरिः, महेन्द्रः सुरपतिः, पर्वतविशेषो वा, तद्वत् सारः प्रधानो यः स तथा। 'तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स' तस्य खलु विजयस्य क्षत्रियस्य राज्ञः "मिया णामं देवी' मृगा नाम देवी 'होत्था' आसीत् । सा कीदृशी ?-त्याह 'सुकुमालपाणिपाया सुकुमारपाणिपादा-कोमलकरचरणा, 'अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा' अहीनप्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरा-अहीनानि अन्यूनानि स्वरूपतः, प्रतिपूर्णानि लक्षणतः पश्चापीन्द्रियाणि यस्मिंस्तत् तथाविधं शरीरं यस्याः सा तथा । 'वण्णओ' वर्णका वर्णनं, स चास्या औपपातिकमूत्राद् धारिणीदेवीवद् विज्ञेय इत्यर्थः । 'तस्स णं विजयखत्तियस्य' तस्य खलु विजयक्षत्रियस्य-विजयनामकस्य क्षत्रियस्य राज्ञः 'पुत्ते' पुत्रः 'मियाए देवीए' मृगाया मलयाचल जैसे श्रेष्ठ गिना जाता है, मेरु पर्वत जिस प्रकार सर्वोत्तम है और महेन्द्र-सुरेन्द्र अथवा पर्वतविशेष जैसे मुख्य माना जाता है, उसी प्रकार यह राजा भी अन्य राजाओं में प्रधान श्रेष्ठ था। तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स मिया णामं देवी होत्था' क्षत्रिय वंश में तिलकस्वरूप उस विजय नृपति की रानी का नाम मृगादेवी था। 'सुकुमालपाणिपाया अहीण० वपणओ' इसके हाथ और पैर अत्यंत सुकुमार थे। शरीर भी इसका स्वरूप की अपेक्षा न्यूनतारहित, तथा लक्षण की अपेक्षा परिपूर्ण पांचों इन्द्रियों से युक्त था। औपपातिक सूत्र में जिस प्रकार का वर्णन धारिणी देवी का किया गया है ठीक उसी प्रकार का वर्णन इस भृगा देवी का भी समझना चाहिये। 'तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियाए देवीए अत्तए मियापुत्ते णामं दारए होत्था' उस विजय नामक क्षत्रिय राजा का एक पुत्र था, जिस को માનવામાં આવે છે. મેરુ પર્વત જેવી રીતે સર્વોત્તમ છે, અને મહેન્દ્ર-સુરેન્દ્ર અથવા પર્વતવિશેષ જેવી રીતે મુખ્ય માનવામાં આવે છે તે પ્રમાણે આ રાજા પણ અન્ય मामा भान्य मान श्रेष्ठ ता. (तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स मिया णामं देवी होत्था) क्षत्रिय वशमा तिa४२१३५ मे विनय २०नी रातु नाम भृावी तु (सुकुमालपाणिपाया अहीण० वण्णओ) तना हाथ- ५ ०४ सुमिमा उता, तेनु શરીર પણ સ્વરૂપની અપેક્ષાએ ન્યૂનતારહિત અને લક્ષણની અપેક્ષાએ પરિપૂર્ણ પાંચ ઇન્દ્રિચોથી યુક્ત હતું. ઔપતિક સૂત્રમાં ધારિણું રાણુનું –દેવીનું જેવું વર્ણન કરેલું છે તેવુંજ वर्णन भृगावातु सम से . (तस्स णं विजयस्त खत्तियस पुत्ते मियाए देवीए अत्तए मियापुने णाम दारए होत्यां) ते विri नामना क्षत्रिय संगने
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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