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________________ उत्तराध्ययनसूत्रे क्षयं नीत्वा, प्रक्रामन्ति-सिद्धि प्रति प्रकर्पण गच्छन्ति, न ततः पुननिवर्तन्त इत्यर्थः । इति ब्रवीमि-अस्य व्याख्या पूर्ववत् ।। इति श्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाफलित-ललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहू छत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त-" जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर -पूज्यश्रीघासीलालप्रतिविरचितायाम् "उत्तराध्ययनसूत्रस्य" प्रियदर्शिन्याख्यायां व्याख्यायाम्-'मोक्षमार्गगति ' नामकं अष्टाविशति तममध्ययनं सम्पूर्णम् ॥२८॥ पुनरावृत्ति रहित सिद्धि गतिको (पकमंभि-प्रक्रामन्ति) प्राप्त कर लेते है। ऐसा मैंने जैसा भगवानसे सुना (तिमि-इतिब्रवीमि ) है वैसा ही हे जम्बू ! तुमसे कहा है ॥ ३६ ।। ॥ यह उत्तराध्ययन सूत्रका अठाईसवां अध्ययन समाप्त ॥ २८ ॥ पूर्वापात ज्ञानापरणीया न खवित्ता--क्षपयित्वा क्षय शन पुनरावृत्ति २डित सिद्धि गतिने पक्कमकि- प्रक्रामन्ति प्राप्त से छे से मेरेम भगवानथा समन्युछे त्तिवेमि-इतिव्रवीमि ते १ ९ ४-| तभन डेस छ. ॥ ३६॥ શ્રી ઉત્તરાયન સૂત્રના અઠાવીસમા અધ્યયનને ગુજરાતી ભાષા અનુવાદ સંપૂર્ણ છે ૨૮ છે
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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