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________________ ८३८ उत्तराध्ययनसूत्रे भिधीयमानत्वादनया गाथया पृथिवीजीवानां भावतो वर्णनं भवति । सहस्रश इति बहुतरन्वोपलक्षणम् ॥८४॥ उक्ताः पृथिवीकायजीवाः, संपत्यपूकायजीवान् माहमूलम्-दुविहा आउ जीवा उ, सुहुमाँ बायरा तेहा । __ पजत्तमपजत्ता, एवमेएं दुहा पुणो ॥ ८५ ॥ छाया-द्विविधा अब् जीवास्तु, सूक्ष्माः वादरास्तथा । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, एवमेते द्विधा पुनः॥८५॥ टीका-'दुविहा आउ जीवा उ' इत्यादि । गाथेयं सुगमा ॥८॥ मूलम्-बायरा जे उ पैजत्ता, पंचही ते पकित्तिया। सुद्धोदए ये उस्ले, हरतणु महियों हिले ॥८६॥ छाया-वादरा ये तु पर्याप्ताः, पञ्चधा ते प्रकीर्तिताः। शुद्धोदकं च उस्सः, हरतनुः महिका हिमम् ॥८६॥ एवं संस्थानरूप देशकी अपेक्षा (सहस्सओ-सहस्रशः) हजारों हैं । गाथा में "सहस्रशः" शब्द बहुत्वका बोधक है ॥४॥ ___इस तरह पृथिवीजीवोंको कह कर अब सूत्रकार जल जीवोंको कहते हैं-"दुविहा" इत्यादि । अन्वयार्थ-(सुहमा तहा बायरा-सूक्ष्मास्तथा बादाः) सूक्ष्म तथा बादरके भेदले (आउजीवा-अप्जीयाः) जलजीव दो प्रकारके हैं । (पुणो एवं-पुनः एवम् ) इसी तरह (एए-एते) ये दो प्रकार भी ( पज्जत्तमपज्जत्ता दुहा-पर्याप्ता अपर्याप्ताः द्विधा) पर्याप्त और अपर्यासके भेदसे दो तरहके है ॥८५॥ सहस्रशः । डाय छे थामा "सहस्रशः" २७६ महुवन माया छ ॥८४॥ આ પ્રમાણે પૃથવી જીવેને કહીને હવે સૂત્રકાર જળને કહે છે – " दुविहा" त्यादि। मन्वयार्थ-सुहमा तहा बायरा-सूक्ष्मास्तथा बोदराः सूक्ष्म तथा मारना हथी आउ जीवा-अपूजीवाः ॥ ०१ मे. प्रा२ना छे पुणो एवं-पुनः एवम् साप्रमाणे एए-एते २मा थे. प्रा२ना ५ पज्जत्तमपज्जत्ता दुहा-पर्याप्ताः अप. प्तिाः द्विधा पर्याप मन मर्याप्तना महथी से प्रारना छे. ॥ ८५ ।।
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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