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________________ ८२२ उत्तराध्ययनसूत्रे उक्तं सिद्धानां स्वरूपं, सम्प्रति संसारिण आहमूलम्-संसारत्था उ जे जीवा, दुविहा ते वियाहिया । तसा य थावरा चैव, थावरा तिविही तहिं ॥६९॥ छाया-संसारस्था स्तु ये जीवा, द्विविधास्ते व्याख्याताः। साश्च स्थावराश्चैव, स्थावरा त्रिविधास्तत्र ॥६९॥ टीका-'संसारत्था' इत्यादि ये तु संसारस्थाः संसारिणो जीवाः सन्ति, ते द्विविधा व्याख्याताः । त्रसाः स्थावराश्च, तत्र-त्रसस्थावरेषु स्थावरा त्रिविधा व्याख्याताः । स्थावराणां पश्चा निर्देशेऽपि, तेषामल्पवक्तव्यतया प्रथमतोऽभिधानम् ॥६९॥ सहायतासे लोकाकाशके अग्रभागमें जाकर विराजमान हो जाते हैं। इससे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि उन लिद्धोंकी आत्मा निष्क्रिय नहीं है। किन्तु सक्रिय है । ॥६॥ ॥सिद्धोंका यह प्रकरण समास हुआ। यह सिद्धोका स्वरूप कहा, अब संसारी जीवोंका स्वरूप कहते हैं'संसारत्था उ' इत्यादि। अन्वयार्थ- (संसारत्था उ जे जीवा-संसारस्था ये जीवाः) संसारी जो जीव हैं (ते-ते) वें (दुविहा विद्याहिया-द्विविधाः व्याख्याताः) दो प्रकारके कहे गये हैं। (तसा थावराचेव-त्रसाः स्थावराश्च) एक बस जीव दसरे स्थावर जीव । (तत्थ-तत्र) इनमें (थायरा-स्थावराः) स्थावर जीव (तिविहा-त्रिविधाः) तीन प्रकारके कहे गये हैं ।। ६९॥ -લકાકાશના અગ્રભાગમાં જઈને બિરાજમાન થઈ જાય છે. આથી એ વાત પણ સિદ્ધ જાય છે કે, એ સિદ્ધોની આત્મા નિષ્ક્રિય નથી પરંતુ સક્રિય છે. ૬૮ સિદ્ધનું આ પ્રકરણ સમાપ્ત થયુ છે આ સિદ્ધોનું સ્વરૂપ કહ્યું હવે સંસારી જીવના સ્વરૂપને કહે છે– "संसोरत्था उ" त्याहि । अन्वयार्थ-संसारथा उ जे जीवा-संसारस्था तु ये जीवाः ससारी ते-तेत दुविहा वियाहिया-द्विविधाः व्याख्याताः मे प्रन डेवामा सावन छ. तसा थावराचेव-त्रसास्थावराश्च से त्रस व मन भी स्थाप२१ तत्थतत्र भाभी थावरा-स्थावराः स्था१२ ०१ तिविहा-त्रिविधाः त्र मारना तापामा मावत छ. ॥१६॥
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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