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________________ ७२४ उत्तराध्ययेनसूत्रे गाथेयं सुगमा । कटुकोऽपि उक्तरीत्या विंशति भङ्गवान् भवतीति भावः ॥ ३१ ॥ कषायरसस्य भङ्गानाह १३१४ मूलम् - रसओ कसौए जे उं, भइए से उं वैष्णओ । गंधेओ फासओ चैवं, भइ संठाओ विये ॥३२॥ छाया - रसतः कषायो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च ॥ ३२॥ कटु रस के भंगों को सूत्रकार कहते है -- ' रसओ कडुए' इत्यादि । अन्वयार्थ - - (जे - यः) जो स्कन्ध आदि ( रसओ - रसतः ) रस परिणामकी अपेक्षा (कडुए - कटुकः) कटुक रसवाला होता है (से उ-स तु) वह (वण्णओ - वर्णतः) वर्णकी अपेक्षा (भइए - भाज्यः) भाज्य होता है । नियमित वर्ण उसमें हो ऐसा नियम नहीं होता है । किन्तु कोई न कोई वर्ण होता है ऐसा नियम बन सकता है । इसी तरह (गंधओ फासओ विय संठाणओ भइए - गन्धतः स्पर्शतः अपि च संस्थानतः भाज्यः) गंधकी अपेक्षा स्पर्शकी अपेक्षा तथा संस्थानकी अपेक्षा भी वह भाज्य होता है । कोई न कोई गंध कोई न कोई स्पर्श तथा संस्थानमेंसे कोई न कोई एक संस्थान ही उसमें होता है । नियमित गंध नियमित स्पर्श और नियमित संस्थान उसमें नहीं होता है । इसीलिये ये सब भाज्य कहे गये है । इस तरह कटुक रससे परिणत पुद्गलस्कन्ध आदि भी बीस भंग होते है ॥ ३१ ॥ उडवा रसोना लगीने सूत्रार बतावे छे - " रसओ कडुए " छत्यादि । अन्वयार्थ – जे-ये ? २४६ यहि रसओ - रसतः रस परिणामनी अपेक्षाखे कडुए-कटुकः उडवा रसवाणे होय छे से उस तु मे वण्णओ-वर्णतः 'वनी अपेक्षाओ भइए-भाज्यः मान्य होय छे, सेनामां नियमित वर्ष होय मेवा अ નિયમ નથી. પરંતુ કાઈને કાઈ વણુ હોય એવા નિયમ બની શકે છે. આજ प्रभाणु गंधओ फासओ विनय संठाणओ भइए - गन्धतः स्पर्शतः अपि च संस्थानतश्च મર્થાત ગ’ધની અપેક્ષા, સ્પેની અપેક્ષા તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાએ પણ ભાજ્ય હાય છે. કાઈ ને કઈ ગંધ, કોઈ ને કાઈ સ્પર્શ તથા સંસ્થાનમાંથી કેાઈ એક સંસ્થાન જ એનામાં હાય છે. નિયમિત ગધ, નિયમિત સ્પ અને નિયમિત સંસ્થાન એનામાં હાતા નથી. આ કારણે એ બધા ભાજ્ય કહેવાયેલ છે. આ પ્રમાણે કડવા રસથી પરિણુત પુદ્ગલ સ્કધ આદિના પણ ॥ ३१ ॥ होय
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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