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________________ ६८६ उत्तराध्ययनसूत्र परं पञ्चत्रिशत्तमाध्ययनस्थितविपयश्रवणादनन्तरमित्यर्थः, जीवाजीवविभक्ति जीवाश्च-उपयोगलक्षणाः, अजीवाश्व-तद्विपरीताः, जीवाऽजीवास्तेषां विभक्तिःविभागः-तत्तभेदादि कथनेन विभागपूर्वकमवस्थापनं जीवाजीवविभक्तिस्ताम् । मे-मम कथयतः यूयम्-एकमनसः एकाग्रीकृतचित्ताः सन्तः, श्रृणुत । यां-जीवाजीव विभक्तिं ज्ञात्वा भिक्षुः संयमे-संयमाराधने सम्यक्रयतते प्रयत्नं करोति ॥१॥ जीवाजीवविभक्तिप्रसङ्गवशादेव लोकालोकविभक्तिं वक्तिमूलम्-जीवा वे अजीवा ये; एस लोए वियाहिए । अजीव देस मांगाले, आलोए से वियाहिए ॥२॥ छाया-जीवाश्चैव अजीवाश्थ, एषलोको व्याख्यातः । अजीवदेश आकाशः, अलोकः स व्याख्यातः ॥२॥ टीका-'जीवाचेव' इत्यादि "जीवाश्चैव अजीवाश्च वक्ष्यमाणाः, कोऽर्थः ?, जीवाऽजीवरूपः, एषाम्पत्यजम्ब ! (इओ-इतः) इस पेंतीसवे अध्ययन के भाव सुनने के बाद में तम्हें .(जीवाजीवविभति-जीवाजीवविभक्तिम्) जीव और अजीव के विभाग को सुनाता हूं उसे तुम (मे-मे) मुझ से ( एगमणा-एकमनसः) एकाग्र चित्त होकर (सुणेह-श्रृणुत) सुनो । (जं जाणिऊण भिक्खू संजमे सम्म जथई-यां ज्ञात्वा भिक्षुः सयले सम्यक् यतते) जीस जिवाजीवविभक्ति को जानकर भिक्षु संयम की आराधना करने में अच्छी तरह से पयत्न करनेवाला बन जाता है ॥१॥ जबतक जीव और अजीव के विभाग को साधु नहीं समझ लेता है तबतक संयम की आराधना में उसका प्रयत्न सफल नहीं होता है अतः सूत्रकार जीवाजीव के विभाग के प्रसङ्ग से लोकालोक के विभाग को इओ-इत : ५iत्रीसमा अध्ययनन माप सामन्य पछी वे ई तमने जीवाजीवविभत्ति-जीवाजीवविभक्तिं 4 अने. 2404 विमाने समा छु। तो तमे ते मे - मे भारी पासेथी एगमणा-एकमनसः अस्थित्त मनाने सणेह-श्रृणुत समो . जं जाणिऊण भिक्खू संजमे सम्मं जयइ-यां ज्ञात्वा भिक्षुः संयमे सम्यग्यतते २ पापविमस्तिने सinीन मिशु सयभनी माराधना કરવામાં સારી રીતે પ્રયત્ન કરવાવાળા બની જાય છે. ૧
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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