SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३४ आयुर्द्वारिनिरूपणम् ६५७ परभवायुष उदयः ?, आहोश्वित् चरमसमये?, अन्यथा वा ? इति संदेहापनोदनार्थं गाथात्रयमाह मूलम् - साहिं सव्वाहिं, पैढमे समयमि परिणयाहिं तु । कसई उबवओ, परे भेवे अस्थि जविस्म ॥ ५८ ॥ छाया - लेश्याभिः सर्वाभिः प्रथमे समये परिणाभिस्तु । , न खलु कस्यापि उपपादः, परे भवे अस्ति जीवस्य ॥ ५८ ॥ टीका--' लेसाहि ' इत्यादि -- सर्वाभिः - पम्डिरपि, लेश्याभिः, तत्मतिपत्तिकालापेक्षया प्रथमे समये, परिणताभिः - आत्मरूपतया उत्पन्नाभिरुपलक्षितस्य कस्यापि जीवस्य परे भवे - अन्यस्मिन् जन्मनि, उपपादः=इत्यादौ लक्षणे तृतीया । तु शब्दः पादपूरणे वर्तते ॥ ५८ ॥ श्याओं वाला होकर मरता है । इस पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या जन्मान्तर में होनेवाली लेश्या के प्रथम समय में परभव की आयु का उदय होता है अथवा वरमसमय में उदय होता है । अथवा नहीं होता है ? इस प्रकार के संदेह को दूर करने के लिये सूत्रकार तीन गाथाओं को कहते हैं - 'लेसाहि ' इत्यादि । अन्वयार्थ - (पढमे समयंमि परिणयाहि सव्वाहिं लेसाहिं-प्रथमे समये परिणताभिःसर्वाभिःलेश्याभिः ) लेश्याओं की प्रतिपत्तिका जो काल है, उस काल की अपेक्षा से प्रथम समय में परिणत हुए उन समस्त लेश्याओं से युक्त हुए (कस्सह जीवरस - कस्यापि जीवस्य ) किसी भी जीव की ( परेभवे - परभवे ) अन्य भव में (उववाओ न - उपपादन) उत्पत्ति नहीं होती है ॥ ५८ ॥ વાળા ખનીને મરે છે. આ ઉપર એવા પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે, કયા જન્માંતરમાં થવાવાળા લેશ્યાના પ્રથમ સમયમાં પરભવની આયુના ઉદય થાય છે. અથવા તે ચરમ સમયમાં ઉદય થાય છે. અથવા તા થતા નથી. આ પ્રકારના સદેહને દૂર કરવા માટે સૂત્રકાર ત્રણ ગાથાએ કહે છે— Senfe" Seule! "l साहि: प्रथमे उमये परि अन्वयार्थ — पढमे समयमि परिणयाहिः सव्वाहि णताभिः सर्वाभिः श्याभिः देश्यानी प्रतिपत्तितो के અપેક્ષાથી પ્રથમ સમયમાં પરિષ્કૃત થયેલ એ સમસ્ત कन्टर जीवस्तु कस्यापि जीवम्य अर्ध चतु छपती परे भवे उवाओ न होइपरभवे उपपादः न भवति अन्य वसां उत्पत्ति धनी नही. भय हे ते अणनी લેહ્ય:એથી યુટન થયેલ उ० ८३
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy