SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०९ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३४ शुक्ललेश्यावर्णनिरूपणम् शुक्लावर्णमाह-- मूलम्-संखंककुंदसंकासा, खीरपूरसमप्पभा । रययहारसंकासा, सुकलेसा उ वैण्णओ ॥९॥ छाया--शङ्खाऽङ्ककुन्दसंकाशा, क्षीरपूरसमभा। ___ रजतहारसंकाशा, शुक्ललेश्या तु वर्णतः॥९॥ टीका--'संखककुंदसंकासा' इत्यादि शुक्ललेश्या तु वर्णतः शङ्खाङ्क-कुन्द संकाशा-शङ्खः प्रसिद्धः, अङ्कः-स्फटिकरत्नम् , कुन्द-कुन्दनाम्ना प्रसिद्धं पुष्पं, तत्सकाशा, तथा-क्षीरपूरसमप्रभा क्षीरपूरः दुग्धराशिः, तत्समप्रभा-तत्तुल्यवर्णा, तथा-रजतहारसंकाशा=रजतहारसदृशी, यद्वा रजतं-रूप्यं, हारः-मुक्ताहारः, तत्संकोशा-तत्सदृशी शुक्लवर्णा भवतीत्यर्थः ॥९॥ उक्तं वर्णद्वार, संप्रति तृतीयं रसद्वारमाह,-तत्रादौ कृष्णलेश्यायारसः पोच्यतेमूलम्-जह कडुय-तुम्बगरसो, निम्बरसो कडुर्यरोहिणि रसो वा। एत्तो वि अणंतगुणो, रसो ये किंण्हीए नायव्वो ॥१०॥ छाया-यथा कटुकतुम्बकरसो, निम्बरसः कटुकरोहिणी रसो वा। अतोऽप्यनन्तगुणो रसस्तु, कृष्णाया ज्ञातव्यः ॥ १०॥ अब शुक्ललेश्या का वर्ण कहते हैं-'संखंक' इत्यादि। अन्वयार्थ--(शुक्कलेसा-शुक्ललेश्या) शुक्ललेश्या (वण्णओ-वर्णतः) वर्ण की अपेक्षा (संखंककुंदसंकासा-शंखांककुंदसंकाशा ) शंख, अंकस्फटिकमणि-कुंदपुष्प के समान सफेद है। (खोरपूरमप्पभा-क्षीरपूरसमप्रभा ) दुग्धराशि के समान है (रययहारसंकासा-रजतहारसंकाशा) सफेत चांदी के हार के समान अथवा चांदी तथा होर-मुक्ताहार के समान सफेत है ॥९॥ अब सूत्रकार रस द्वार का वर्णन करते हैं जिसमें प्रथम कृष्णलेश्या हवे शुसोश्यार्नु पनि ४९ छ-" संखक " त्या । अन्वयार्थ -सुकलेसा-शुक्ललेश्या शुस वेश्या वण्णओ-वर्णतः वानी अपेक्षा संखककुंदसंकासा-शखांककुंदसंकाशा -२३टि भी-४-४०पना समान छे. खोरपूरसमप्पभा-क्षीरपूरसमप्रभा धना मरेका मना २वी छ. रययहारसंकासा-रजतहारसंकाशा यादीना ९२ना रेवी अथवा तो यही तथा भुताहा२ समान छे. ॥६॥ હવે સૂત્રકાર રસદ્વારનું વર્ણન કરે છે. જેમાં પ્રથમ કૃષ્ણલેશ્યાના उ-७७
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy