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________________ ५३६ उत्तराध्ययन सू छाया -- रसानुपाते खलु परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे । व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य, सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः ॥६७॥ टीका--' रसाणुवाएण ' इत्यादि -- रसानुपाते परिग्रहेण = रसविषये मूर्च्छात्मकेन हेतुना, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे व्यये वियोगे तस्य क्व सुखं सम्भोगकाले च, अतृप्तिलाभे सति क्व सुखं, इत्यन्वयः । शेष व्याख्या पूर्ववत् ॥ ६७ ॥ रसविषये तृप्तिप्राप्ति रहितस्य ये दोषो भवन्ति तानाह-मूलम् - रंसे अतित्ते ये परिग्गहम्मि, सत्तोवैसत्तो नै उवेई तुहिं । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्से, लोभाविले आययैई अदत्तं ॥ ६८॥ छाया -- रसे अतृप्त परिग्रहे, सक्तोपसक्तो न उपैति तुष्टम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविल: आदत्ते अदत्तम् ॥ ६८ ॥ टीका--' रसे अतित्ते ' इत्यादि -- रसे, अतृप्त परिग्रहे = परिग्रहविषये रसे सक्तोपसक्तस्तुष्टिं नो पैति, अतुष्टि 'रसाणुवारण' इत्यादि । 'जब जीवकी मनोज्ञ रसमें आसक्ति बढ जाति है तो वह उस रस को ग्रहण करने की इच्छासे उस रस विशिष्ट वस्तुका उपार्जन करता है उसकी प्राप्ति होने पर फिर उसका संरक्षण करता है । अपने निमित्त या परके निमित्त उसका उपयोग करता है । जब उसका व्यय एवं वियोग हो जाता है तब उसमें इसको दुःख होने से सुख कैसे मिल सकता है । उपभोग कालमें भी उससे यथावत् तृप्ति नहीं होती है । अतः उस अवस्था में भी यह जीव सुखी नहीं हो सकता है ||६७|| 66 " छत्याहि ! रसाणु वाएण જ્યારે જીવની મનેાજ્ઞ રસમાં આસક્તિ વધી જાય છે ત્યારે તે એ રસને ગ્રહણ કરવાની ઈચ્છાથી એ રસ વિશિષ્ટ વસ્તુનું ઉપાર્જન કરે છે. એની પ્રાપ્તિ થવાથી પછી એનું સ’રક્ષણ કરે છે પેાતાના નિમિત્ત કે ખીજાના નિમિત્ત તેના ઉપયાગ કરે છે. જ્યારે એના વ્યય અને વિચૈાગ થઈ જાય છે ત્યારે એમાં તેને દુઃખ થવાથી સુખ કયાંથી મળી શકે? ઉપભાગ કાળમાં પણ એનાથી યથાવત્ તૃપ્તિ થતી નથી. આથી એ અવસ્થામાં પણ એ જીવ સુખી તા નથી. uઉછા
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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