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________________ उत्तराध्ययन ७६३ जनान्तरे यदभूत्तदुन्यत मूलम् - अहं से तत्थ निज्जतो, दिस्स पाणे भयए बाडे हि पर्जरेहि, ये, सनिरुद्वे मुटुम्सिए | १४ || पीयितं तु संपते, भर्दिव्यम् । 3 पासिता से " महापण्णे, सारहि इर्णमव्ववी ॥१५॥ डाया-जय सतत्र निर्यन, दृष्ट्रा माणान भयद्रतान | पु परेषु च सन्निरान / सुदुखितान ||१४ जीवितान्त तु सम्माप्तान, मामार्थे भक्षयितव्यान् । दृष्ट्वाऽथ महामान, सारथिम् इदमननीव ॥२५॥ टीका- 'अरसी' इत्यादि । जय = अनन्तर स भगवानरिष्टनेमि निर्यन= निर्गच्छन विवाहमन्डप प्रत्यासन्नभ देशे वाटेपु=शशलाकादिभिर्निर्मितेषु पजरेपु=पक्ष्यादिन्यनगृहेषु च सन्निरुद्धान्= गाढनियन्त्रितान् अव एस मुदु चितान=दु समाप्तान, भगदुतान =भयत्रस्तान प्रागान्=पाणिनो जीवाद= मृगत्तित्तिरलावकादीन् दृष्ट्रा, व= पुन जीवितान्त=जोवि सग्वियों ! मैं अपनी भवितव्यता जानती हू अत' मेरा हृदय एमा विश्वास नही करता है कि ये मेरे साथ विवाह करेगे। मुझे ऐसा हो मातृम देना है किवे मुझे छोडकर ही चले जानेंगे | ११११११३॥ इसके या हुआ सो सूत्रकार कहते हैं- अहरों' इत्यादि 'जीवितु' इत्यादिका अन्वयार्थ - ( अह - अथ) जब नेमिकुमार चले आरहे थे तब (सो सः) उन्होंने (तत्थ - तत्र ) उस मंडप के समीप (वाडेहि वाटेषु) वाडों मे तथा (पजरेहि- पजरेपु) पिंजरों में (सनिरुद्धे- सनिरुद्धान्) बन्द किये गये अत एव ( सुदुक्स - सुदु खितान) अत्यंत दुखित ऐसे (मय ए - भयद्रुताम् ) भयत्रस्त (पाणे-माणान् ) जीवों को मृग तित्तिर चिडिया થી મરૂ હૂંત્ય એવા વિશ્વાસ નથી કરતુ કે, તે મારી સાથે વિવાહ કરશે મને તે એવુ જ માલુમ પડે છે કે, મને છોડીને તેઓ ચાલ્યા જશે ૧૧૫૧૨૧૩{t या पछी शुश्रूयु तेने सूत्रकार हे छे --"अहसो" धत्याहि ! "जीवियतु" धत्याहि ! अन्वयार्थ--अह-अथ न्यारे नेभिडभार भावी रह्या हता त्यारे सो-स तमाशे तत्थ-तन ते भडपनी सामे वाडेहिं - वाटेषु वासभा तथा पजरेहिं - पजरेषु पारामा सनिरुद्ध-सनिरद्वान् पुरवामा आवेला ते मुटु वए-दु· खितान् अत्यंत हु भी योना त्रास भय-ए-भयद्रतान लयलीत मनेा
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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