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________________ प्रियदर्शिनी टोका अ २० मृगापुनचरितवर्णनम् किंच- मूलम् - तिंय में अन्तरिच्छ च, उत्तिंमंग च पीडयेइ । इंदासणि समाधोरा, वेयणी परमदारुणा ॥ २१ ॥ छाया -- त्रिक मे अन्तरिक्ष च, उत्तमाङ्ग च पोडयति । इन्द्राशनिसमा घोरा, वेदना परमदारणा ||२१| टीका--' नियमे' इत्यादि । ७८९ हे राजन! इन्द्राशनिसमा इन्द्रम्य अशनि =वत्र तेन समाल्या, अति ersica = परेषामपि दृश्यमाना सती भयोत्पादिका, तथा-परमदाम्णा = अतीव दुःखोत्पादिना वेदना=असात रूपा मे ममत्रिक = कटिम देशम्, अन्तरि क्ष=शरीरम पभाग- हृदयोदरादिरूप तथा उत्तमाद्द्र = शिरश्च पीडयति ॥ २१ ॥ होती है (एव - एवम् ) इसी तरह की (मे-मे) मेरे (अच्छि वेयणाअक्षिवेदना) नेत्रपीडा हुईथी ||२०|| 'तिय' इत्यादि । अन्वयार्थ -- हे राजन् ! ( उदासणि समा- इन्द्राशनिसमा ) अतिदाहोत्पादक होने से इन्द्र के वज्र के समान घोर- देवी जाने पर दूसरों को भी भय उत्पन्न करने वाला तथा (परमदारुणा - परमदारुणा) अत्यत प्राणान्तक दुःख दायक एसी (वेयणा-वेदना) उस असाता रूप वेदनाने (मेतिय अन्तरिच्छ च उत्तिम च पीडयई - मे त्रिक अन्तरिक्ष उत्तमाङ्ग च पीडयति) मेरी कमर को तथा शरीर के मध्यभाग - हृदय उदर आदिको तथा उत्तमाङ्ग - शिर को विशेष व्यक्ति किया ॥ २१ ॥ सेवा शस्त्रने घोथी हे अने से समये ने वेहना थाय छे, एव - एवम् सेवा प्रा २नी मे - मे भने यक्खिवेयणा - अक्षिवेदना आनी थोडा थती इती २०॥ "तिय" धत्याहि अन्वयार्थ---हे राजन् ! इदासणिसमो - इन्द्राशनिसम' अति हाड ४२नार है। વાથી ઇન્દ્રના વજ્ર જેવી ઘાર-ોવાથી ખીર્જાને પણ ભય ઉત્પન્ન કરે એવી તથા परमदारुणा - परमदारुणा अत्यंत आधुन्ति हुँ महाय खेवी वेयणा-वेदना ते असाता वेधनाओ मे विय अतरिन्छ च उत्तिमग च पीडया - मे त्रिक अन्तरिक्ष उत्तमाङ्ग च पीडयति भारी उभरने तथा शरीरना मध्यभाग- हृदय, पेट वगेरेने તેમ જ ઉત્તમાત્ર-માથાને વધારે વ્યથિત કર્યું રા 6
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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