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________________ ५८८ বনায়ন A अक्षिवेदना यथाऽ भूतयोच्यतेमूलम्--संस्थ जहाँ परमतिखं, सरीरविवरंतरे । __ आवीलिज अंरी कुंखो, एंव में अच्छियेयणा ॥२०॥ छाया-शस्त्रयथा परमतीक्ष्ण, शरीरवियरान्तरे। थापीडयेदरिः ऋद्ध, एर में प्रतिवेदना ॥२०॥ टीका--'सत्य' इत्यादि। क्रुद्धः क्रोधयुक्तः अरिश शरोरविपरान्तरे शरीरविरोणि-वर्णना सिकादीनि तेपामन्तरे-मध्ये यथा परमतीक्ष्ण शस्त्रम् मापीढयेत्-निर्दय सनिवे शयेत्, एव एवमेव मम अक्षिवेदना समुत्पन्ना । २०॥ 'पढमें' इत्यादि। अन्वयार्थ-(महाराय-महाराज) हे राजन् ! (पहमे वये-प्रथमे. वयसि) यौवन काल में (मे-मे) मुझे (अउला अच्छि वेयणा आहोत्थाअतुला अक्षिवेदना अभवत्) यहुत ही अधिक नेत्रपीडा हुईथी। तथा मेरे (सव्वगत्तेसु-सर्वगावपु) समस्त शरीर में (पत्थवा-पार्थिव !) हे राजन् ' विउलो दाहो-विपुलः दाहः) बहुतभारीदारज्वर उत्पन्न हो गया था ॥१९॥ वह अक्षि वेदना किस प्रकार की हुई सो कहते हैं-'सत्य' इत्यादि। अन्वयार्थ-(जहा-यथा) जिस प्रकार (कुद्धो अरी-क्रुद्ध अरिः) क्रुद्धवैरि (सरीरविचरतरे शरीरविवरान्तरे) कर्णनासिका आदि इन्द्रियों मे (परमतिक्ख सत्थ आविलिज्ज-परमतीक्ष्णम् शस्त्रम् आपीड. येत्) अत्यन्ततीक्ष्ण शस्त्र को घोंसता है और उस समय जो वेदना "पढमे" त्या। ___अन्याय-महाराय-महाराज हे शन्। पढमे वये-मथमे वयसि योपना मा भने अउला अच्छि वेयणा आहोत्था-अतुला अक्षिवेदना अभवत् भूष भावना मेवी भागोनी चार तथा सव्वगत्तेसु-सर्वगात्रेषु भार सा शरीरमा पत्थिवा-पार्थिव ३ सन् ! यी विउलो दाहो-विपुल, दाह तात्र એ દાહ ઉત્પન્ન થયે ૧૫ એ આબેની વેદના કેવા પ્રકારની થઈ તે કહે છે-“શરણ ઈત્યાદિ अ-पया--जहा-यथा रे कुद्धो अरी-ऋद्ध अरि धना मा. शमा मापी गये। वैरी सरीरविवरतरे-शरीरविरान्तरे ४ान, ना बोरे धान्द्र सोमा परमतिक्ख सस्थ आवीलिज्ज-परमतीक्ष्णम् शस्त्रम् आपीडयेत् अत्तता
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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